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सियासी हलचल उर्फ 2024 की वर्जिश

Shyam Kishore Choubey 18वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव हालांकि अगले साल अप्रैल-मई में होंगे, लेकिन उसकी तैयारियां विभिन्न दल अभी से करने लगे हैं. वे यह भलीभांति जानते हैं कि अगले चार महीने बरसात के हैं और इस दौरान अधिकतर वोटर खेती-किसानी में लगे रहेंगे, आंधी-पानी के कारण शहर अस्त-व्यस्त रहेंगे और मंच-पंडाल टिक नहीं पाएंगे. इसके बावजूद भरे आषाढ़ में उनकी हलचल बढ़ी हुई है. मॉनसून और सूर्यदेव की असीम कृपा है, भले ही आम जनमानस उमस, गर्मी और पसीने से परेशान है. वे यह भी जानते हैं कि दिसंबर तक पांच राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होना है, जिसमें बरसात बाद वे रात-दिन लगे-भिड़े रहेंगे. इन पांच राज्यों का चुनाव परिणाम संसदीय चुनाव के लिए और नहीं तो परसेप्शन जरूर बनाएगा. उसके बाद लोकसभा चुनाव के लिए बेसाख्ता तेजी ला देनी होगी. इसके बावजूद अभी से अपनी उपस्थिति दर्ज कराना जरूरी है, ताकि वक्त-जरूरत याद दिलायी जा सके कि आप हमारी यादों में हमेशा बसे रहे हैं. इसी सिलसिले में बीते गुरुवार को गिरिडीह में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने जनसभा की. उनके पहले राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 15 जून को बगोदर में सभा की. बगोदर क्षेत्र भाजपा के लिए हमेशा चुनौती बना रहा है, क्योंकि वहां माले पांव जमाकर बैठी हुई है. गिरिडीह इलाके में भाजपा की बढ़ी गतिविधियां कुछ संकेत दे रही हैं? 2019 के चुनाव में भाजपा ने अपनी यह सीटिंग सीट सहयोगी आजसू के सुपुर्द कर दी थी. छह महीने बाद नवंबर-दिसंबर 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में दोनों दलों में खरमंडल हो गया. दोनों अलग-अलग चुनाव लड़े और जैसा कि सभी जानते हैं, दोनों की शर्मनाक हार हुई थी. इसके बाद उनकी चेतना जगी तो इसी साल रामगढ़ विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में आजसू की वापसी हो सकी. अब रिक्त डुमरी विधानसभा सीट पर कभी भी उपचुनाव हो सकता है. ऐसी स्थिति में नड्डा की पहली ही जनसभा गिरिडीह में होने का मतलब यह तो नहीं कि आजसू यह सीट बदलने के मूड में है? इसलिए भाजपा एक बार पुनः अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है. 2013 के अंतिम दिनों में राष्ट्रीय फलक पर बतौर भाजपा चेहरा मोदी-शाह के अचानक उदय के साथ पार्टी के चाल-चरित्र में आये विस्मयकारी बदलाव ने देश में चुनाव का रंग-ढंग ही बदल दिया. उसने एक तो चुनाव के लिए हर समय तैयार रहने का जज्बा पैदा किया; दूसरे चर्चा, खर्चा और पर्चा में उछाल ला दिया. उसी समय से भारतीय चुनावों पर प्रभाव डालने का तिलिस्म विदेशों में भी रचा जाने लगा. दो ट्रिप में राहुल गांधी के ब्रिटेन और फिर अमेरिका के हालिया दौरों तथा नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे को इस नजरिये से भी देखा जा सकता है. इस परिपाटी की शुरुआत नरेंद्र मोदी ने ही की थी. 2019 के चुनावों के पूर्व और उसके दौरान भी वे विदेश जाते रहे थे और वहां पर उनकी अप्रवासी भारतीय नागरिकों से भेंट-मुलाकातों का खबरिया चैनल धुआंधार प्रचार करते थे. राहुल ने यह नुस्खा नौ साल बाद आजमाया, लेकिन उनको सोशल मीडिया का ही साथ मिला. 2014 के आम चुनाव ने एक और टीप दी कि यदि विपक्ष एकजुट हो जाए तो सत्ताधारी दल या गठबंधन मुश्किल में पड़ जाता है. निश्चय ही यह नुस्खा भी मोदी-शाह की जोड़ी ने ही इजाद किया था. वही नुस्खा नौ साल बाद मार्फत नीतीश कुमार विपक्षी दल आजमाने की कोशिश में हैं. चुनाव मैदान जब वन-टू-वन सजा रहेगा, तो 20-22 फीसद वोटों के भरोसे सत्ता पाना दुर्लभ हो जाएगा. कहा जा रहा है कि राजस्थान आदि पांच राज्यों के अगले चुनाव में भाजपा सीएम फेस पेश नहीं करने की सोच रही है. यानी एक फेस के आगे बाकी फेस छौने हैं. खबर यह भी है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी द्वारा इस महीने के अंत तक चलाये जा रहे महासंपर्क अभियान के दौरान सांसदों की गतिविधियों पर रिपोर्ट तलब की गई है. उधर राहुल गांधी के 53वें जन्म दिवस पर 18 जून को झारखंड कांग्रेस ने बिरसा मुंडा के गांव से रांची तक 53 किलोमीटर पदयात्रा कर इसे ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से जोड़ दिया. वह 2024 के चुनाव में महागठबंधन के तहत राज्य की 14 में से नौ सीटें चाह रही है. 2019 में उसे ये सीटें मिली थीं, लेकिन महज एक सीट निकाल पाई थी, हालांकि अन्य दो सीटों पर क्लोज कंटेस्ट में थी. झामुमो ने लोकसभा चुनाव के मसले पर 4 जुलाई को बैठक बुलाई है. सीपीआई महासचिव डी राजा हाल ही रांची आये तो हजारीबाग लोकसभा सीट पर अपना दावा ठोंका. कभी इस सीट पर उनकी पार्टी जीत हासिल किया करती थी, लेकिन आज के हालात पर भी चिंतन जरूरी है. झारखंड को उदाहरण के बतौर लिया जा सकता है कि जब इस छोटे से राज्य में इतनी सियासी हलचल है तो बड़े राज्यों में बड़ी बातें हो रही होंगी. ये सब चुनावी वर्जिशें ही हैं, जबकि परीक्षा की असल घड़ियां दिसंबर के बाद ही शुरू होंगी. भाजपा को यह अहसास है कि चुनाव मैदान में वन-टू-वन होना उसके लिए मुश्किलात पैदा करेगा. इसीलिए उसने बिहार की ‘हम’जैसी पार्टी से भी हाथ मिलाना शुरू कर दिया है, जबकि लोजपा को वह सटाये हुए है ही. यानी एक-एक वोट पर समझौता हो रहा है, क्योंकि हर दल/गठबंधन अब सामनेवाले की चाल से ही उसकी काट पेश करने की चाल आजमाने को आतुर है. इसी में सामनेवाले की आर्थिक रीढ़ तोड़ना भी शामिल है और यह अस्त्र एक पक्ष के ही पास है. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]  

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