New Delhi : केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 8 अप्रैल को जारी किये गये उस आदेश पर आपत्ति जताई है, जिसमें दो जजों की बेंच ने कहा था कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधेयकों पर एक तय समयसीमा के अंदर फैसला लेना चाहिए.
बेंच ने कहा था कि किसी बिल पर फैसला लेने के लिए राष्ट्रपति को तीन माह और राज्यपालों को एक माह से ज्यादा का समय नहीं लेना चाहिए. आदेश दिया था कि ऐसा नहीं किये जाने पर कोर्ट दखल देगा. इसका विरोध करते हुए केंद्र ने कहा है कि अगर इस तरह से सुप्रीम कोर्ट दखल देगा तो संवैधानिक अराजकता पैदा हो जायेगी.
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित जवाब दिया है. कहा कि समयसीमा तय करने से संवैधानिक संकट पैदा हो जायेगा. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट से कहा कि आर्टिकल 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को विशेष शक्तियां मिली हैं, लेकिन उसमें संविधान में संशोधन या फिर कानून निर्माताओं को हराने की मंशा से कदम उठाने का अधिकार नहीं दिया गया है. कहा कि राज्यपाल जैसे पद की गरिमा को कम नहीं किया जाना चाहिए. .
तुषार मेहता ने दलील दी कि राज्यपाल-राष्ट्रपति का पद लोकतांत्रिक व्यवस्था के शीर्ष पद हैं. इसमें न्यायपालिका का हस्तक्षेप ठीक नहीं है. आर्टिकल 200 के तहत राज्यपाल के पास अधिकार है कि वे विधेयकों को मंजूरी दे सकते हैं या फिर राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं.
मामला यह है कि तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आठ अप्रैल को फैसला सुनाते हुए कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को भी बिल को मंजूरी देने को लेकर समयसीमा का पालन करना चाहिए.
इस क्रम में राष्ट्रपति द्वारा प्रेसिडेंशियल रेफेरेंस भेजा गया था.राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेजकर सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल किये थे.
जानकारी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के एक संवैधानिक पीठ 19 अगस्त को इस मामले की सुनवाई करेगी जिसमें सीजेआई बीआर गवई भी शामिल होंगे.
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