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अदालत को पुख्ता सबूत दीजिए ताकि सही निर्णय हो सके

Nishikant Thakur


अपराध और आपराधिक प्रवृतियों को रोकने के लिए हमारे वेदों-पुराणों में भी उल्लेख किया गया है. यहां तक कि किस अपराध और किस अपराधी को किस तरह का दंड दिया जाए, इसका भी वर्णन किया गया है. मनुष्य के जितने कार्य हैं, वे सब उचित दण्ड नीति के प्रयोग से सिद्ध होते हैं -- इसमें कोई संदेह नहीं है. यदि लोक में दण्ड की सत्ता न हो तो सारा समाज नष्ट हो जाएगा और बलवान निर्बलों को इस प्रकार खा जाएंगे जैसे जल में बड़ी मछली छोटी मछली को.  


हमारे कानूनविदों ने वर्तमान का जो कानून बनाया था, निश्चित रूप से उनमें से बहुत कुछ लिया होगा. विश्व के सभी देशों में कानून को एक स्वतंत्र संस्था बताया गया है और भारतीय न्यायपालिका को भी प्रजातंत्र में अलग संवैधानिक दर्जा दिया गया है, वह स्वतंत्र और निष्पक्ष माना गया है. लेकिन पुलिस और राजनीतिज्ञ इस स्वतंत्रता को कहां मानते. वह तो हर प्रकार के मुद्दों को अपने हित के मुतल्लिक़ कर लेने में माहिर होते. 


अभी पिछले सप्ताह देश भर में वर्षों से चर्चित कुछ फैसले आए हैं, जिनके पीछे जाने से ऐसा लगता है कि इनमें से कुछ मामलों में राजनीतिज्ञों और पुलिस ने कुछ झोल जानबूझकर छोड़ रखा था, जिनमें तथाकथित चर्चित अपराधी साफ बचकर निकल गए. वैसे अब इस पर अपनी प्रतिक्रिया देने का अधिकार सामान्य जनता का तो बनता है, लेकिन मान्य फैसला तो सर्वोच्च न्यायालय ही कर सकता है.


अब पुलिस और राजनीतिज्ञों का अधिकार है कि वह मामले को जनहित के प्रति अपनी सहमति देता है. जिसके तहत अगले न्यायालय में आदेश को ले जाया जाए या उसे यहीं खत्म मान लेने को समाज को मजबूर करे. 
वैसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा है चर्चित मालेगांव मामले को लेकर अगले न्यायालय में न्याय की गुहार लगाएंगे. फिलहाल जो निर्णय आया है, वह समाज के लिए चुनौती मान लिया गया है. 


अब क्या है मालेगांव मामला इसके लिए यदि सत्रह वर्ष पीछे जाएं तो मामला बनता है कि 29 सितंबर 2008 को मुंबई से लगभग 291 किलोमीटर दूर मोटर साइकिल विस्फोट हुआ, जिसमें साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्लिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित (रिटायर्ड) सहित कई अन्य नामजद किए गए फिर गिरफ़्तार किए गए. 


जिस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से एक नए शब्द का ईजाद करके भगवा आतंकवाद कहा गया. इस विस्फोट में छह निर्दोष मारे गए थे और 101 घायल बताए गए थे. विस्फोट की जांच तरह-तरह की एजेंसियों द्वारा कराई गई, लेकिन वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो गई. पुलिस किसी भी नामित व्यक्तियों को सजा नहीं दिलवा सकी और तथा कथित नामजद बच निकले. 


अब प्रश्न यह उठता है कि क्या विभिन्न जांच एजेंसियों द्वारा जानबूझकर गलत पक्ष प्रस्तुत किया गया अथवा राजनीतिक दबाव के कारणों से कमजोर जांच की गई. आखिर अपराधी कौन थे और जिन निर्दोष लोगों के परिवार ने इस दुख को झेला है, वह सब उनका जांच प्रणाली के दोषपूर्ण होने के कारण व्यर्थ चला गया अथवा राजनीतिक दबाव से उसे खत्म कर दिया गया? 


हत्यारे अपराधी अभी भी कानून की पकड़ से बाहर उन्मुक्त जीवन जी रहे हैं और ये अपराधी हैं कौन इसका पता अब तक नहीं लगाया जा सका. आखिर यह विस्फोट किसने या किसके द्वारा किया गया या कराया गया यह प्रश्न अब भी अनुत्तरित जस का तस पड़ा ही रह गया है.


पिछले सप्ताह आए कई महत्वपूर्ण निर्णय में बुलंदशहर के जंगल में गोवंशीय अवशेषों के मिलने के कारण उत्तेजित भीड़ को शांत कराने गए स्याना कोतवाली प्रभारी सुबोध कुमार को उनके ही सरकारी पिस्तौल से गोली मारकर हत्या कर दी गई थी . हिंसा में सुमित नामक व्यक्ति की भी मौत भी हो गई .  


यहां चूंकि मामला पुलिस की हत्या का था और उन्मादी भीड़ द्वारा किया गया था, अतः पुलिस ने मुस्तदी से जांच को अंजाम दिया और अपराधियों को सजा दी जा सकी. अब रही सजायाफ्ता के परिवार की बात, वही यह फैसला करेंगे सजा भुगतेंगे या ऊपरी अदालत में अपील करेंगे. 


दरअसल मामला उत्तर प्रदेश में घटित हुआ था और यहां केंद्र और राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, इसलिए अपराधी के पक्ष में फैसला न आए इस पर विचार करना पड़ा और अपराधी को स्पष्ट सजा दिलाने  का कोई भी ऊपरी राजनीतिक दबाव बनाने पुलिस और अदालत को स्वतंत्र रूप से जांच करने दिया गया फिर अपराधियों को सजा मिली. इसी तरह मामला पुलिस अधिकारी के  हत्या से जुड़ा था, इसलिए पुलिस ने भी निष्पक्ष अपने कर्तव्य का निर्वहन किया और अपराधी को सजा मिली.


एक सर्व चर्चित फैसला दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक से आया. वह मामला गंभीर था और चूंकि मीडिया में बहुत बढ़ गया था, अतः पुलिस को निष्पक्ष जांच का अवसर मिला. मामला राजनीतिक परिवार से जुड़ा हुआ था,  इसलिए पुलिस को निष्पक्ष जांच करने का अवसर मिला. बड़े राजनीति परिवार से संबंधित होते हुए भी कुख्यात प्रज्वल रामन्ना नामक पूर्व संसद सदस्य को सजा दिलाया जा सका. 


कर्नाटक में चूंकि केंद्र सरकार से अलग कांग्रेस की सरकार है, इसलिए पूर्व संसद के खिलाफ पुलिस को जांच करने का भरपूर अवसर मिला  और अपराधी को आजन्म कारावास की सजा दिलाने में सफल रही. मामला क्या है, इसे समझने के लिए 2021 में जाना पड़ेगा.  


मामला सामने आया कि हासन (कर्नाटक) से संसद पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के पौत्र अपने घरेलू सहायिका से जबरन दुष्कर्म किया करता था और अपराधी उसकी वीडियो भी बनाया करता था. इसके साथ प्रज्वल रामन्ना पर तमाम महिलाओं ने आरोप लगाया कि वह जबरिया बलात्कार करता था और वीडियो के माध्यम उनको ब्लैकमेल करता था. 


पुलिस ने निःसंदेह जांच की और मामला सामने आने पर अपराधी देश छोड़कर फरार हो गया, लेकिन कोई भी दुर्दांत अपराधी क्यों न हो, सरकार यह ठान ले कि अपराधी को सजा दिलाने में सच को सामने लाएगी, सजा दिलवाएगी तो कोई भी निशिकांत ठाकुर

 

9 अगस्त


भगवान बुद्ध कहते हैं कि रोग की जड़ जिघ्रिक्षा है. ग्रहण करने की इच्छा, तृष्णा, सारे दुखों का मूल संस्कार है. इस तत्व को जानकर तृष्णा और संस्कार के नाश से ही मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है*(धर्मो रक्षित रक्षित:). 


ईश्वर को कृपा सदैव आपको प्राप्त हो तथा आपका दिन शुभ हो मंगलमय हो. बचकर भाग नहीं सकता और आखिर कई दर्ज मामलों में  केवल एक दर्ज केस में उम्र कैद की सजा मिली अभी कई केस दर्ज हैं जिसका निर्णय अदालत से आना शेष है.


उपरोक्त सभी मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट में बैरिस्टर राजीव एस जाधव से बात की गई तो उन्होंने कहा कि किसी भी मामले में माननीय न्यायाधीश पर आक्षेप करना न्यायालय में मानहानि का मामला है. ऐसा इसलिए कि किसी भी मामले को न्यायाधीश सबूतों के आधार पर ही निर्णय लेते हैं.  मामले की प्रारंभिक जांच  पुलिस द्वारा की जाती है जहां हेरफेर की गुंजाइश रहती है . पहला विवाद दर्ज प्राथमिकी के आधार पर ही किया जाता है. दुर्भाग्य यह है कि प्राथमिकी दर्ज करने में पुलिस द्वारा कई बहाने  बनाए जाते है. 


यदि किसी तरह दर्ज हों भी जाता है तो उसकी निष्पक्ष जांच उनके द्वारा नहीं की जाती. अतः प्रारंभिक स्तर पर ही मुकदमा कमजोर हो जाता है. यदि अदालत में वकीलों के तर्क द्वारा उसे  सही किया भी जाता है तो फिर राजनीतिक हस्तक्षेप हो जाता है. जिसके कारण कुछ मुद्दे मीडिया में महत्व पाने लगता है, जो अदालत को प्रभावित करता है. 


यदि सबसे पहले पुलिस द्वारा प्राथमिकी सही दर्ज हो और उनके द्वारा निष्पक्ष, पुख्ता सबूत एकत्रित किए गए हों तो अपराधी किसी भी दशा में बचकर निकल नहीं पाएगा. भारतीय अदालत दोनों पक्षों को अपनी बात साबित करने का अवसर देता है और विश्व के कुछ विशेष देशों की बात करें तो वहां तथाकथित अपराधियों को उसके पक्ष को अदालत के समक्ष रखने का अवसर नहीं दिया जाता, बल्कि किसी चौराहे पर फांसी लगा दी जाती है. 


भारतीय न्यायिक प्रक्रिया पर विश्वास दिलाते हुए बैरिस्टर राजीव एस जाधव कहते हैं कि वे स्वयं भारतीय न्याय व्यवस्था में घोर विश्वास रखते है. आरोप तो सभी पर लगाए जा सकते हैं, लेकिन उसे प्रमाणित करना कठिन होता है. यदि अपराधी अपराध करने के बावजूद बिना दण्ड पाए सबूतों के अभाव में बच निकलता है तो फिर वह निर्भीक,दु:साहसी हो जाता है और बड़े से बड़ा अपराध करने से नहीं चूकता.

 

 डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ट पत्रकार हैं और ये इनके निजी विचार हैं. 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


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