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त्वरित टिप्पणी : दलित सीजेआई पर ‘सनातनी’ जूता!

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                                                                                                      Srinivas

इसे किसी विक्षिप्त व्यक्ति/वकील की हरकत मानना भूल होगी! जैसे गोडसे कोई ‘उन्मादी’ हिन्दू नहीं था, जिसने आवेश में आकर एक निहत्थे वृद्ध की गोली मारकर हत्या कर दी थी. ऐसा होता तो गांधी की कायराना हत्या (जिसे वे ‘वध’ कहना पसंद करते हैं, क्योंकि ‘वध’ धर्मसम्मत कृत्य है, जो ‘दुष्टों’ का किया जाता है!) के बाद हिंदू होने पर गर्व करने वालों ने खुशी नहीं मनायी होती, मिठाई नहीं बांटी होती!

 

वह एक जहरीली विचारधारा के प्रभाव में था, जिसके ध्वजवाहकों की नजर में खुद को वैष्णव और सनातनी हिंदू कहने वाले गांधी उनके मार्ग की बाधा थे. इसलिए कि गांधी के सनातन धर्म की परिभाषा-सही मायनों में पूरी मानवता के कल्याण की भावना-कामना, ‘सत्य’ को ही ईश्वर मानने की उनकी बात से वे सहमत नहीं थे. इसलिए कि भारत की उनकी कल्पना गांधी के सपनों के भारत से भिन्न थी!

 

देश में गोडसेवादियों की बढ़ती तादाद और ‘गोडसे जिंदाबाद’ के नारे बताते हैं, हिंदू समाज का एक छोटा-सा हिस्सा (अधिकतर सवर्ण) गांधी से तब भी घृणा करता था, अब भी करता है! इसलिए वे गोडसे को पागल या हत्यारा नहीं, ‘धर्म-रक्षक’ मानते हैं!

 

चीफ जस्टिस बीआर गवई न सिर्फ जन्मना दलित हैं, बल्कि उस बाबा साहेब अंबेडकर को आदर्श मानते हैं (इस बात को उन्होंने छिपाया भी नहीं है), जिन्होंने इस जमात के पवित्र ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ के पन्नों को सार्वजनिक रूप से जलाया था और मृत्यु के कुछ समय पहले एक बड़े समारोह में अपने हजारों समर्थकों के साथ हिंदू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया था!

 

मगर भारत के वृहत्तर समाज (हिन्दू सहित) में गांधी और अंबेडकर के प्रति जो आदर और सम्मान है (इनके तमाम उलट प्रयासों व निंदा अभियानों के बावजूद), उस कारण इस जमात के स्थापित नेताओं को इनके खिलाफ सार्वजनिक रूप से कुछ बोलने का साहस नहीं होता. बल्कि श्रद्धा का दिखावा करने में कोई कोताही नहीं करते!

 

ऐसा ही एक हास्यास्पद प्रयास बीते दिनों देखने को मिला, जब संघ ने, जिसके अब तक सभी सर-संघचालक सवर्ण (मात्र एक अपवाद- क्षत्रिय), सिर्फ महाराष्ट्र के ‘चितपावन’ ब्राह्मण हुए हैं, अपने एक समारोह में एक दलित महिला कमलाताई गवई को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया. आमंत्रित ही नहीं किया, बिना उनकी रजामंदी के उनका नाम आमंत्रण पत्र पर छाप कर प्रचारित भी कर दिया गया!

 

संघ इससे क्या संदेश देना चाहता था? यह कि जाति के आधार पर भेदभाव में उसका विश्वास नहीं है? कमलाताई गवई चली जातीं तो यह साबित हो जाता? या उनको इसलिए आमंत्रित किया कि वे भारत के चीफ जस्टिस बीआर गवई की मां हैं? कि संघ को लगता था कि जस्टिस बीआर गवई इससे अभिभूत हो जायेंगे? 

 

उल्लेखनीय है कि पिछले चीफ जस्टिस श्री चंद्रचूड़ ने प्रधानमंत्री श्री मोदी को अपने आवास पर किसी पूजा में आमंत्रित किया था. यह भी पहली बार हुआ था कि किसी चीफ जस्टिस ने देश के प्रधानमंत्री को घर पर आमंत्रित किया था! तभी देश को यह भी पता चला था कि अयोध्या विवाद का फैसला न्यायिक आधार पर नहीं, 'ईश्वर' की प्रेरणा से और हिंदू समाज की धारणा 'भावना' के आधार पर हुआ था. बाद में श्री चंद्रचूड़ ने इसे और भी स्पष्टता से बताया.

 

आज जब देश पर संघ का ‘सिक्का’ चल रहा है (संघ के नाम का सिक्का भी जारी हुआ है) और हर कोई इनके जलाल के आगे नतमस्तक हुआ जा रहा है, गनीमत है कि श्रीमती कमलाताई गवई ने जाने से मना कर दिया, बल्कि यह भी बता दिया कि उनकी आस्था डॉ अंबेडकर के विचारों में है. वैसे इनको किसी कथित अछूत या शूद्र से दिक्कत नहीं है, बशर्ते कि वह इनके अनुकूल रहे! 

 

जस्टिस गवई की उदारता देखिए कि उन्होंने जूता फेंकने वाले वकील को क्षमा कर दिया. उसे तत्काल गिरफ्तार किया गया था, जो रिहा हो गया. उस वकील ने कहा है कि वह जस्टिस गवई के 'विष्णु' संबंधी टिप्पणी से आहत था! मगर जस्टिस गवई ने ऐसा क्या कहा था?

 

सुप्रीम कोर्ट में खजुराहो गुफा में स्थित कथित रूप से विष्णु की खंडित प्रतिमा को नये सिरे से बनाकर स्थापित करने का आदेश देने की याचिका दायर हुई थी. जस्टिस गवई ने मौखिक टिप्पणी करते हुए कि आप विष्णु भगवान के भक्त हैं, उनमें आस्था है तो उनसे ही प्रार्थना कीजिए कि कुछ करें, इस तर्क के आधार पर कि यह आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) का मामला है, याचिका खारिज कर दी थी. यह 'विष्णु भगवान' का अपमान कैसे है? 

 

वैसे भी ये तो यही मानते और खुल कर कहते रहे हैं कि कोर्ट को 'आस्था' के मामले में निर्णय करने का अधिकार नहीं है. अयोध्या का फैसला भी इनके अनुकूल नहीं होता, तो तय था कि ये उसे स्वीकार नहीं करते. आखिर कोर्ट के यथास्थिति बरकरार रखने के आदेश और उप्र की भाजपा सरकार द्वारा इस आशय का हलफनामा दिये जाने के बावजूद इन लोगों ने भीड़ जुटा कर बाबरी मसजिद (जिसे ये 'विवादित ढांचा' कहना पसंद करते हैं) को जमींदोज कर ही दिया था.  यानी ऐसे लोग हर उस बात से 'आहत' होने को तत्पर या अभिशप्त हैं, जो इनके इरादों के अनुकूल न हो. 

 

इलेक्टोरल बांड मामले में सरकार की दलील को हूबहू मान लेने से इनकार करने पर इनकी ट्रोल आर्मी ने सुप्रीम कोर्ट को 'सुप्रीम कोठा' कहा था. 'वक्फ' मामले में भी कोर्ट द्वारा किंचित आनाकानी करने पर सोशल मीडिया में सुप्रीम कोर्ट के भवन को मसजिद का रूप देकर प्रचारित किया गया. ऐसी टिप्पणी किसी 'ब्राम्हण' या किसी सवर्ण जाति के जज ने की होती, तो मुझे संदेह है कि वकील साहब इतने आहत हुए होते. 

 

अभी तो सिर्फ जूता फेंकने का प्रयास हुआ है, ये किसी हद तक जा सकते हैं. खुली अदालत में देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकना एक जन्मना ‘अछूत’ को संकेत है- औकात में रहो! ‘हिन्दू राष्ट्र’ अंबेडकर के संविधान से नहीं चलेगा! कि ‘हिन्दू राष्ट्र’ के मार्ग में जो भी बाधक बनेगा, उसका वही हश्र होगा, जो गांधी का हुआ था!

 

डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.

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