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नस्लवादी सांप्रदायिक अंधराष्ट्रवाद दुनिया की हकीकत है

Faisal Anurag बात 1933 की है. 27 फरवरी 1933. जर्मनी के संसद राइखस्टॉग को आग के हवाले कर दिया गया. आरोप कम्युनिस्टों पर लगा. एडोल्फ हिटलर के हिटलर बनने की शुरूआत इसी के बाद हुई. बाद में पता चला संसद को आग के हवाले नात्सी पार्टी के हिटलर भक्तों ने किया था. अमेरीकी संसद कैपिटल हिल की हिंसा ने इस घटना की स्मृति ताजा कर दिया है. इसका एक बड़ा कारण दुनिया के वे अनेक निरंकुश शासक हैं, जो संविधान और संसद का हवाला तो देते हैं. लेकिन हिटलर की तरह बनने को आतुर भी दिखते हैं. नात्सी विचारधारा आज भी हकीकत है. संविधान और संवैधानिक संस्थानों को कमजोर कर वे तमाम अधिकार अपने ही हाथों में ले लेते हैं. न तो कैबिनेट के भीतर लोकतंत्र बचा रहता है और न ही संसद को बहस को बहस का अवसर दिया जाता है. दुनियाभर में इसे न्यू नॉर्मल कहा जा रहा है. ब्राजील हो या भारत तमाम लोकतंत्र इन संकटों से महफूज नहीं हैं. डोनाल्ड ट्रप के नंगे खेल को तो अमेरिका की विरासत में शेष बची लोकतांत्रिक चेतना ने तात्कालिक तौर पर बचा लिया है. लेकिन यह न तो ट्रप का अंत है और न ही उन प्रवृतियों का जो नस्लवादी, सांप्रदायिक और कॉपरेटीकृत राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रही हैं. ट्रंप का उदय कोई तन्हा घटना नहीं हैं. बल्कि उसी नस्ली चरमवाद का ही नतीजा है, जो अमेरिका को सिविल वार में झोंका है. यही कारण है कि कैपिटल हिल पर भीड़ के हाथों केवल अमरीका का ही झंडा नहीं था, बल्कि चरम नस्लवाद का प्रतीक झंडा भी था. इसके साथ भारतीय तिरंगा झंडा भी इस भीड़ में देखा गया. नस्लवाद एक एक भयावह दौर का अमेरिका शिकार रहा है और इसकी आहट फिर सुनायी दे रही है. चार साल बाद होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के समय नस्लवादी राष्ट्रवाद का उन्माद देखने को मिल सकता है. इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता. 20 जनवरी के बाद ट्रंप सत्ता से बाहर होंगे. लेकिन उनका नस्लवाद खत्म नहीं होगा. यह नस्लवादी तानाशाही पालैंड में कोविड काल में ही लोकतंत्र को निगलने में कामयाब हो गयी. ट्रंप के समर्थकों ने 2024 के लिए अभी से ही दावेदारी पेश किया है. यानी अमेरिका को अभी इस तरह के उन्माद से लंबी लड़ाई लड़नी है. ट्रंप के खिलाफ अनेक रिपब्लिकन सांसदों का मुखर होना बताता है कि अभी अमेरिकी कंजरवेटिव ट्रंप के आगे पूरी तरह समर्पित नहीं हैं. लेकिन पिछला चार सवाल गवाह है कि रिपब्लिकन ट्रंप के सनक के खिलाफ खामोश रहे. यही खोमोशी ट्रंप की ताकत में इजाफा करता गया. यह प्रवृति भारत सहित कई देशों में देखा जा रहा है. भारत में तो यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि भाजपा का कोई सांसद नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक भी शब्द बोल सकता है. चूंकि भारत इमरजेंसी का एक दौर बीत चुका है. मीडिया और संसद का आत्मसमर्पण उस दौर की हकीकत है. पिछले छह सालों से जिस तरह भारत डेमोक्रेसी इंडेक्स में पिछड़ता गया है. उससे भी जाहिर होता है कि भारत में तानाशाही की प्रवृति जीवित है. पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी में अपनी आत्मगाथा में नरेंद्र मोदी की चर्चा करते हुए उनकी तानाशाही प्रवृतियों का उल्लेख किया है. मुखर्जी की टिप्पणी को हल्के में नहीं लेना चाहिए. अमेरिका हो या भारत या ब्राजील ट्रंप की प्रवृतियां हर जगह देखी जा सकती हैं. इन प्रवृतियों को हर दिन की उन घटनाओं में महसूस किया जा सकता है, जो असहमति रखने वाली आवाजों से निपटने में किया जा रहा है. ट्रंप की बेटी इंवाका हों या स्वयं ट्रंप हमलावरों को देशभक्त बता रहे हैं. भारत में नागरिकता कानून का विरोध करने वाले हों या कृषि नीति का सबको यूं ही देशद्रोही नहीं कहा जा रहा है. इसके पीछे का मनोविज्ञान वही है, जो ट्रंप समर्थकों का है. राजनैतिक भक्ति के इस दौर का इतिहास नया तो नहीं हैं. लेकिन जिस तरह हिटलर ने दुनिया में तबाही मचायी उसका सपना इन प्रवृतियों की वैचारिक आधारशिला है. यह अलग बहस का विषय है कि अमेरिका ने दुनिया के कई देशों में तानाशाहों को किस तरह खड़ा किया. लेकिन चीन और रूस यदि अमेरिका पर हंस रहे हैं, तो इसका आधार भी तो अमेरिका ही मुहैया कराया है. इतिहास अपनी खामोशी तोड़ इराक हो या लेबनान या लीबिया की हकीकत धीरे-धीरे बयान कर रहा है. अमेरिकी हस्तक्षेप के अनेक पहलुओं को उजागर कर रहा है. बावजूद इसके अमेरिका के आंतरिक लोकतंत्र पर इतना बड़ा खतरा पहले कभी नहीं देखा गया. अमेरिका का लोकतंत्र चेक और बैंलेस तो कर सकता है. लेकिन डगलस मैकअर्थर के असहमति को कुचलने के इतिहास की छाया से हमेशा घिरा रहता है. ट्रंप परिघटना को इन्हीं व्यापकों संदर्भों में देखे जाने की जरूरत है.

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