Dr. Kirti Singh
हर वर्ष 13 फरवरी को एक विशिष्ट थीम के साथ ‘विश्व रेडियो दिवस’ मनाया जाता है. यूनेस्को ने इस बार की थीम ‘रेडियो एवं शांति’ घोषित की है. साल 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस दिन को औपचारिक मान्यता दी थी. यूनेस्को रेडियो को पूरी दुनिया में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले संचार माध्यम के रूप में देखता है. ये एक ऐसा अवसर होता है जब रेडियो प्रसारण की अहमियत से दुनिया को रूबरू करवाने की कोशिश की जाती है. ये एहसास करवाया जाता है कि विविध डिजीटल मीडिया प्लेटफॉर्मस की चकाचौंध के बीच रेडियो आज भी मजबूती के साथ पांव जमाए हुए है.
सन् 1981 में एमटीवी यानी म्यूज़िक टेलीविज़न के लांच होने पर पहला गाना बजाया गया था –वीडियो किल्ड द रेडियो स्टार्स, जबकि 90 के दशक में प्राइवेट एफ.एम के दौर में नए तरह के स्टार्स का जन्म हुआ. ये स्टार्स थे – आरजे. इसी तरह अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर में लाइसेंस फ़ीस के बावजूद रेडियो लोगों का चहेता रहा. पचास के दशक में टेलीविज़न आने के बाद रेडियो की लोकप्रियता एकबारगी घटी, लेकिन फिर प्राइवेट एफएम के अवतार में रेडियो दिलों पर राज करने लगा. हम 5जी के युग में प्रवेश कर चुके हैं. स्मार्ट टेलीविज़न के दौर में ब्राडबैंड कनैक्शन की मार्फ़त एक ही प्लेटफ़ार्म पर सभी मीडिया की लाइव स्ट्रीमिंग कर पाने में सक्षम हो गए हैं. ऐसे में वर्तमान पीढ़ी के लिए रेडियो कदाचित बीते ज़माने की बात हो सकती है. ये पीढ़ी कह सकती है कि जब स्पोटीफ़ाई, गाना, विंक आदि जैसे मोबाइल एप्लिकेशन्स, यूट्यूब चैनल और जान्यर के आधार पर वर्गीकृत अनेक रेडियो चैनल स्क्रीन पर ही हमारी ज़रूरतों को एक क्लिक से पूरी कर सकते हैं तो स्टेशन ट्यून कर-कर के नियत समय पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों को क्यों सुना जाए? हर ओर हल्की-सी सुगबुगाहट यह भी है कि रेडियो अब मर रहा है.
निस्संदेह परंपरागत रेडियो सैट गायब हो रहे हैं. एंटीक पीस की तरह बाज़ार में महंगे दामों पर बिक रहे हैं. लेकिन रेडियो के पीछे की मूल भावना जब तक ज़िंदा है, रेडियो मर नहीं सकता. अन्य मीडिया घरानों की तरह मीडिया कन्वर्जैंस के बाद से रेडियो के लिए अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संकट खड़ा हुआ है. उसके बावजूद भारत की भौगोलिक सरंचना रेडियो को विलुप्त नहीं होने देगी. डिजिटल भारत के सपने में आज भी कई दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र अवरोधक की तरह खड़े हैं. मोबाइल टावर नहीं पहुंच पाए हैं या फिर सिग्नल कमज़ोर हैं. बिजली व्यवस्था दुरुस्त नहीं हैं, लंबे-लंबे बिजली कट लोग झेल रहे हैं, अख़बार शहरी सीमा को पार कर नियत समय पर गांव नहीं पहुंच पा रहे हैं या देरी से पहुंचते हैं.
रेडियो की उपयोगिता को समझने के लिए साल 2020 को कैसे भुलाया जा सकता है. साल 2020 पूरी दुनिया के लिए संकटकाल बन कर आया. जनवरी में चीन से शुरू हुआ कोरोना वायरस का संक्रमण पूरे विश्व में एक महामारी के रूप में फैल गया. संपूर्ण मीडिया जगत एकजुट हो कोविड से जुड़ी ख़बरों और बचाव हेतु जन-जागरूकता अभियान में तल्लीनता से जुट गया. देश में कोरोना की यह पहली लहर थी. मई महीना आते-आते केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक कोविड के मामले बढ़कर 1,12359 हो गए और 3,345 लोग की मौत हो चुकी थी. भारतीय सरकार की चिंता बढ़ने लगी. तत्कालीन सूचना एंव प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने दूर-दराज़ के इलाकों में कोविड के रोकथाम के लिए सामुदायिक रेडियो के ज़रिये जन जागरूकता अभियान चलाने का निर्णय लिया. शहरों में राष्ट्रीय मीडिया चैनल अपनी भूमिका निभा रहे थे, वहीं ग्रामीण समुदायों और सूचनाओं से वंचित इलाक़ो में सामुदायिक रेडियो लोगों की मदद कर रहे थे. काम ना होने के चलते राशन व अन्य रोज़मर्रा की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए प्रशासन तक संदेश पहुंचाने का काम रेडियो ने किया. लोगों का मनोबल बनाए रखने के लिए, संक्रमण और इससे जुड़ी अफ़वाहों से सावधान रहने के लिए अनेक शिक्षाप्रद, गीत-संगीत व लोकगाथाओं के कार्यक्रमों का सहारा लिया गया.
प्राकृतिक आपदाओं और आपातकालीन परिस्थितियों में रेडियो हमेशा संकटमोचक की भूमिका में रहता है. लगभग हर बरस बाढ़, चक्रवाती तूफ़ान, भूस्खलन, भूकंप इत्यादि की वजह से देश का कोई न कोई हिस्सा प्रभावित होता है. विपदाओं में हैम रेडियो सरकार और पीड़ितों के बीच संपर्क का ज़रिया होते हैं. देश में 2004 में सुनामी आया. पोर्ट ब्लेयर की फोन की तारें टूट गईं. न बिजली थी, न इंटरनेट. हैम रेडियो के ज़रिये पोर्ट ब्लेयर पर फंसे लोगों से संपर्क साधा गया. सन 2015 का नेपाल भूकंप, 2016 में उत्तराखंड की बाढ़ ये सब रेडियो तरंगों की ताक़त के साक्षी रहे हैं. सरकार निरंतर मौजूद प्रसारणों की गुणवत्ता को और बेहतर बनाने की योजनाओं पर काम कर रही है. रेडियो मर नहीं रहा, बल्कि रेडियो का विस्तार अनवरत हो रहा है. पोडकास्ट रेडियो का नया अवतार है. इंटरनेट और पोडकॉस्ट दोनों ने मिलकर संचार के माध्यम के रूप में इसकी सीमाओं का विस्तार किया है. युवा पीढ़ी ऑडियो पोडकॉस्ट सुनती है. इस ऑडियो प्लेटफ़ार्म पर वो करियर की संभावनाएं देख रही है. रेडियो माध्यम की जड़ों से प्रस्फुटित नये क़िस्म के ऑडियो प्लेटफ़ार्म रेडियो की उदारता को सिद्ध करते हैं. समय की नब्ज़ और नई पीढ़ी की सहुलियत को देखते हाथों-हाथ रेडियो ने प्रसारण के नए मंचों को अपना लिया. यहां तक कि सोशल मीडिया और रील के ज़माने में ढलकर अब रेडियो जॉकी आवाज़ ही नहीं, अपनी एक्टिंग से भी लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं. अंतरंग संचार इंसान की सबसे अहम् ज़रूरत है. सफ़र में, किसी मानसिक द्वंद से उपजी उलझनों में, आपके अकेलेपन में रेडियो आज भी एक जिगरी साथी-सी भूमिका निभाता है.
डिस्क्लेमर: लेखिका आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों पर बतौर कार्यक्रम प्रस्तोता कार्यरत रही हैं.
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