Faisal Anurag
रामदेव ठीक उस समय जब केंद्र सरकार वैक्सीन के सवाल पर फंसी हुई है आयुर्विज्ञान बनाम आयुर्वेद की बहस कर रहे हैं. जब कभी कोई सवाल गंभीर होने लगता है सरकार के बचाव में रामदेव के उतरने का ममला कोई नया नहीं है. पहले तो डाक्टरों और पूरी चिकित्सा पद्धति को हत्यारा बताने का रामदेव ने प्रयास किया. जब विवाद गहराया तो बयान वापसी का एलान किया. लेकिन साथ ही आयुर्विज्ञान की पूरी प्रणाली से 25 सवाल पूछ डाले. सवाल भी ऐसे जिसका कभी दावा आयुर्विज्ञान ने नहीं किया है. निजी अस्पतालों की लूट एक गंभीर सवाल जरूर है लेकिन इससे एक पूरी चिकित्सा प्रणाली को लेकर लोगों को आशंकित कर देना अंधविश्वास से कम नहीं है. विज्ञान का जन्म ही स्थापित मान्यताओं पर संदेह करने और उसके अस्तित्व के कारणों की तलाश के साथ हुआ है. विज्ञान की कोई भी प्रणाली अंतिम सत्य का दावा नहीं कर करती है. क्योंकि नया प्रयोग और नये संदेह कभी खत्म नहीं होते.
सवाल यह भी नहीं है कि कारगर कौन है आयुर्विज्ञान या आयुर्वेद. सवाल तो यह है कि एक ऐसे समय में जब देश के करोड़ों लोग तकलीफों से गुजर रहे हैं. लाखों की जान जा चुकी है. वैसी स्थिति में किसी प्रणाली को लेकर संदेह पैदा करने के पीछे इरादा क्या है. हरियाणा की सरकार ने कोरोना के सरकारी किट में रामदेव के कोरोलिन के उपयोग को मान्यता दे कर इरादे की ओर इशारा किया है. केंद्र के दो बड़े मंत्री नितिन गडकरी और हर्षवर्धन ने बड़े तामझाम के साथ जिस तरह कोरोलिन को लांच किया था. उससे ही जाहिर होता है कि जिस महामारी ने लाखों की जान ली उसे लेकर केंद्र के मंत्रियों और रामदेव के बीच किस तरह के रिश्ते हैं. बिना आईसीएमआर की स्वीकृति के ही कोरोलिन को एक ऐसी दवा बता दिया गया. जो कोरोना के प्रभाव को रोकने वाला बताया गया. कोई भी दावा क्लिनिकल ट्रायल और उसकी रिपोर्ट के सावर्जनिक किए जाने के बाद ही आथिरिटी मान्यता देती है.
चिकित्सा प्रद्धतियों को लेकर जिस तरह का विवाद रामदेव ने खड़ा किया है उससे जाहिर होता है. उन्हें पता है कि अनेक लोगों के अंधविश्वासी मनमिजाज उनकी ही बातों को सुनेगा. यह अलग बात है रामदेव या बालकृष्ण किसी गंभीर बीमारी की गिरफ्त में आते हैं वे आयुर्विज्ञान की शरण में ही पहुंच जाते हैं. आयुर्वेद भी एक विज्ञान है बावजूद इसके रामदेव जैसे अनेक ऐसे लोग मिल जाते हैं जो आयुर्वेद के नाम पर लोगों के विश्वास और आस्था को व्यापार का आधार बना लेते हैं.
वैसे भी आजाद भारत ने वह दौर भी देखा है कि ट्रैक्टर जब पहली बार आया तो उसे धरती मां का बेरहमी से सीना चीरने वाला बताया गया था. जिस दिन दिल्ली में रंगीन टीवी का उद्घाटन किया गया था. भारत बंद बुलाया गया था और कंप्यूटर का भी विरोध इस देश ने देखा था. उस बहस को याद कीजिए जिसमें इंटरनेट के खिलाफ बैलगाड़ी का घोषणापत्र जारी किया गया था. रामदेव के नए सवाल में एलोपैथ तो और भी दकियानुसी है. जिस के एक सवाल में कुछ बीमारियों के स्थायी निदान में एलोपेथ के कारगर नहीं होने की बात पूछी गयी है.
भारत में हिमालय,डावर और झंडु जैसे अनेक हैं जो आयुर्वेद की दावा बनाते हैं. लेकिन वे रामदेव की तरह इकलौते आयुर्वेद के जानकार और बाजार पर एकाधिकार की बात नहीं करते. रामदेव ने भी दावा किया है कि कोरोना में आयुर्वेद से उन्होंने भी करोड़ों लोगों की जान बचायी है. अपने दावे का कोई प्रमाण उन्होंने नहीं दिया है. आयुर्वेद की समस्या विज्ञान की पद्धति होने को लेकर नहीं है बल्कि अस्पतालों के ढांचे, उन पर नियंत्रण और उसमें सक्रिय फर्मा कंपनियों के एकाधिकार वाली प्रवृति है. इससे निपटने का अलग तरीका इजात किए जाने की जरूरत है. क्यूबा जैसे छोटे से देश तो 50 सालों से अमेरिका और यूरोप की बंदिशों का शिकार है उसके चिकित्सा क्षेत्र के प्रयोग से सीखा जाना चाहिए. क्यूबा में जिस तरह की चिकित्सा संरचना और मेडिकल कर्मियों की ट्रेनिंग हैं उसने बहुत कुछ दुनिया में दिखाया है.