Ranchi: झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाले करीब डेढ़ लाख गड़ेरिया समाज के लोग बेरोजगारी और भूखमरी का दंश झेलने को विवश हैं. पहले गड़ेरिया परिवार के लोग भेड़ पालन करके उससे कंबल का निर्माण करते थे. भेड़ का घी निकाल कर उसे बेचा करते थे. मगर अब इनका यह पुस्तैनी पेशा करीब-करीब समाप्त हो चुका है. इसके कारण इनके समक्ष आर्थिक संकट उत्पन्न हो गई है. ये लोग सरकार से अपने लिए संचालित सरकारी योजनाओं से जोड़ने और रोजगार उपलब्ध कराने की मांग कर रहे हैं. इनका कहना है कि पहले भेड़ के ऊन से बने कंबलों की अच्छी मांग थी, मगर आहिस्ता-आहिस्ता मार्केट से ये बाहर हो गया. रांची प्रेस क्लब में आयोजित दो दिवसीय गड़ेरिया समाज है जलवायु न्याय कार्यकर्ता घुमंतू समाज के अधिकारों पर एक सम्मेलन में रविपाल ने कार्यक्रम के समापन पर ये बातें कहीं. उन्होंने कहा कि दशकों पहले भेड़ के ऊन से बने कंबल की अच्छी मांग थी. हर घर में लोग करीब-करीब इससे बने कंबल ही इस्तेमाल करते थे. मगर बदलते समय के साथ भेड़ के ऊन से बने कंबलों की मांग घट गई और इसकी जगह मखमली कंबलों की बिक्री एवं मांग बढ़ गई. इसके कारण इनका रोजगार पूरी तरह से खत्म हो गया. चतरा से आये संदीप ने कहा कि भेड़ पालन कर ऊन बनाते थे. आज लोग हाथों से बनाए गए कंबलों की खरीदारी नहीं करते हैं. जिससे गड़ेरिया समाज के सामने जीवन बसर करने में काफी परेशानी हो गई है. तीन दशकों से भेड़ पालकों के लिए किसी प्रकार के रोजगार की व्यवस्था नहीं की गई है. भेड पालकों को पशु विभाग से सरकारी योजना का लाभ मिलना चाहिए था.
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भेड पालक गड़ेरिया पूरे देश में पाई जाने वाली जाति है. झारखंड में भेड पालकों को ओबीसी कैटेगरी में रखा गया है. ये लोग घुमंतू परिवार मे आते हैं. पूरे वर्ष घर के बाहर होते हैं. कोई एक निश्चित स्थायी पता नहीं है. आज यहां है, तो कल वहां रहते हैं. अपने हाथों से बनाए एक कंबल के सहारे ही सभी मौसम का सामना करते हैं. ये लोग प्रकृति से हमेशा जुड़े हुए रहते हैं, और प्रकृति का संरक्षण भी करते हैं. सरकार और समाज दोनों तरफ से परेशान किए जा रहे हैं. इनका भेड़ पालने का मुख्य स्रोत जंगल है. जंगल में भेड़ चरेंगे तभी इनका जीवन बसर हो सकता है. लेकिन आज तेजी से जंगल कट रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्रो में जो रैयती जमीन है. आज वहां भी भेड़ चराने में मना किया जा रहा है. इसलिए भेड़ पालने का काम मुश्किल हो गया है. राज्य के पलामू,गढ़वा जिलों में 1500 परिवार भेड़ पालन करके अपना जीवन बसर कर रहे हैं. पाल जाति में कुछ लोगों का शैक्षणिक विकास हुआ है.
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सरकार की ओर से गौ पालन, मछली पालन, मुर्गी पालन समेत अन्य पशु पालकों के लिए योजनाएं लाई जाती हैं. लेकिन सरकार भेड़ पालन करने वालों लिए अबतक कोई योजना नहीं लाई है, इससे भेड़ पालक नाराज हैं. इन्हें प्रशिक्षण देने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है. पलामू, गढ़वा जिलों से 25 हजार किलो ऊन निकालते हैं और उसे कचरे में फेंक दिया जाता है. ऊन बनाने की प्रक्रिया है. उसे सहयोग करने के लिए अबतक कोई सरकारी संस्था या कोऑपरिटिव बैंक सामने नही आये हैं. लोग अपने चरखे से धागा बनाते थे. वह परंपरा आज भी जिंदा करके रखा गया है. परंपरागत भेड़ पालकों का जीवन अब संकट से गुजर रहा है. मौके पर घनश्याम संवाद, छंदु ,अनुप्रिया, सौरम कुमार ,संदीप, बीरेद्र , बिहार से शिवनाथ पाल, अभिमन्यु भगत ,सुधीर पाल समेत सैकड़ो लोग शामिल थे. [wpse_comments_template]
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