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रांचीः आदिवासियों के इतिहास को राष्ट्रीय पटल पर लाने की जरूरत- रणेंद्र कुमार

Ranchi: झारखंड सहित पूरे देश के आदिवासियों के इतिहास को नए सिरे से राष्ट्रीय पटल पर लाने की जरूरत है. क्योंकि अब तक आदिवासियों को केवल जंगल में रहने और लड़ाकू प्रवृत्ति के रूप में देखा और सामने रखा गया है. जबकि ऐसा नहीं है. अगर हम आर्य की बात करें, तो जहां से प्राचीन इतिहास की बात की शुरुआत होती है, तो उस समय इनकी संख्या मात्र 10 प्रतिशत ही थी. जबकि प्राचीन काल का इतिहास आर्य पर घूमता रहा है. न केवल आदिवासी संघर्षशील थे बल्कि शांतिप्रिय भी थे. राज भी किया और शासन भी किया. शांतिपूर्वक संघर्ष भी किया. देश के आदिवासियों का अपना इतिहास और अपनी इकोनॉमी रही. मगर यह कभी सामने नहीं आया. 1851-52 की बात करें, तो उस समय केवल 10 प्रतिशत ही आर्य का जिक्र है. इसके बावजूद पूरा प्राचीन काल इतिहास आर्यों पर केंद्रीत कर देना एक तरह से आदिवासियों के योगदान को भुला देने जैसा है. इन सबको को लेकर लंबे समय तक मंथन, लेखनी और शोध जारी है. मगर अभी तक इसका कोई फला-फल नहीं निकल रहा है. इसलिए डॉ. रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान ने यह निर्णय लिया कि इस पर समग्र विचार करने के लिए आदिवासी हिस्ट्री पर तीन दिवसीय सेमिनार का आयोजन 28 अगस्त से किया जाए. जिसका उद्घाटन आदिवासी कल्याण सचिव राजीव अरुण एक्का करेंगे. इस सेमिनार में देश के जाने-माने इतिहासकार राकेश दयाल, प्रो महालक्ष्मी कृष्णन और रोमा चटर्जी सहित करीब पूरे देश से 24 इतिहासकार शामिल होंगे. जो भारतीय संस्कृति खासकर आदिवासी विषयों पर बहुत सारे शोध एवं खोज किए हैं. यह जानकारी डॉ. राम दयाल मुंडा शोध संस्थान के निदेशक डॉ. रणेंद्र कुमार ने आयोजित एक प्रेस वार्ता में दी. इसे पढ़ें- डुमरी">https://lagatar.in/dumri-by-election-sudesh-said-education-medicine-and-justice-in-the-state-are-getting-away-from-the-poor/">डुमरी

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पश्चिमी देशों में म्यूजियम की शोभा बन गए आदिवासी, जबकि भारत में आज भी जीवंत : रोमा चटर्जी

इतिहासकार रोमा चटर्जी ने कहा कि पश्चिम देशों में आदिवासी अब म्यूजियम की शोभा बन गए हैं. जबकि भारत ऐसा देश है, जहां आदिवासी आज भी जीवंत हैं, जो अपने पारंपरिक और आधुनिक जीवन शैली के बीच संघर्ष कर रहे हैं. भारत जैसे देश में आदिवासी केवल शोषित और शोषण की वस्तु नही रहे, राजा भी बने और राज भी किया. आज यह खुशी की बात है कि हमारे देश की आदिवासी संस्कृति भी जीवित है. इसलिए हम इतिहासकारों का नैतिक दायित्व बनता है कि आदिवासियों की सही तस्वीर सबके सामने रखी जाए. प्रो महालक्ष्मी कृष्णन ने कहा कि उन्होंने पुरुलिया से लेकर रामगढ़ छिन्न मस्तिका मंदिर आकर यहां के आदिवासियों की परंपरा, सभ्यता-संस्कृति आदि को समझने का प्रयास किया. कई काम किए. टीआरआई का आभार है कि एक मंच के नीचे आदिवासी इतिहास पर एक समग्र विचार होगा और नयी तस्वीर लोगों के सामने आएगी. इसे भी पढ़ें-  भाजपा">https://lagatar.in/bjp-held-a-meeting-three-news-of-koderma-including-instructions-to-make-babulals-sankalp-yatra-a-success/">भाजपा

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