Srinivas
सत्ता पक्ष ने चाहे जिस मंशा से और जिन समीकरणों को साधने की रणनीति के तहत द्रौपदी मुर्मू को अपना प्रत्याशी बनाया हो, पर अब वह भारत की, हमारी राष्ट्रपति हैं. किसी को पसंद हो या न हो, राजनीतिक नैतिकता और शालीनता का तकाजा है कि उनको शुभकामना दी जाये. मैं भी देता हूं. इस उम्मीद के साथ कि वे इस पद के दायित्व और इसकी गरिमा का निर्वाह करेंगी. साथ ही यह भी कहा जाना चाहिए, कहना चाहता हूं कि किसी पद के किसी प्रत्याशी का विरोध करना सम्बद्ध प्रत्याशी की जाति या समुदाय का विरोध करना नहीं होता है, जैसा कि भाजपा ने बताने का प्रयास किया.
वैसे, देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर श्रीमती मुर्मू के रहने से आदिवासी समुदायों और वंचित तबकों को कितना लाभ मिल सकेगा, इस बहस से अलग पहली बार एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति निर्वाचित होने का एक प्रतीकात्मक महत्त्व तो है ही. और इस कारण आदिवासी समाज को गौरव का अनुभव होना भी स्वाभाविक है. निश्चय ही उनका चयन मोदी -शाह जोड़ी का मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ. यह और बात है कि भाजपा और एनडीए ने इसका कुछ ज्यादा ही ढोल पीटा. देश में यह पहली बार हुआ कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद सत्तारूढ़ दल ने देश की राजधानी सहित देश भर में विजय जुलूस निकाला. जाहिर है, यह जताने के लिए कि हम आदिवासी हितों के चैम्पियन हैं. जाहिर है, मकसद कुछ और रहा होगा. लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए किसी जाति या समुदाय का कार्ड खेलना गलत नजीर पेश करना है. हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. तब भी सवाल है कि क्या हम प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को कायस्थ राष्ट्रपति के रूप में याद करेंगे?
सत्ता पक्ष के प्रत्याशी का राष्ट्रपति चुना जाना भी कोई अनहोनी बात नहीं है. अपवादों को छोड़ कर सत्ता पक्ष का प्रत्याशी ही राष्ट्रपति चुना जाता रहा है. इसलिए यह कोई ‘उपलब्धि’ नहीं है. मुझे तो एक ही मौका है, जब ’69 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के आधिकारिक प्रत्याशी नीलम संजीवरेड्डी को पराजित कर वीवी गिरी राष्ट्रपति बने थे. पर इस कारण कि उनको तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का समर्थन हासिल था, जिन्होंने ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर मतदान करने की अपील की थी; और अंतर्कलह से जूझ रही कांग्रेस के इंदिरा समर्थकों की ‘अंतरात्मा’ ऐन वक्त पर जाग गयी थी.
बेशक भारत का राष्ट्रपति एक तरह से रबर स्टाम्प ही होता है. लगभग संविधानतः भी. द्रौपदी मुर्मू भी अब उनमें शामिल हो जायेंगी, इसे लेकर उनकी आलोचना बेमानी है. हां, न तो उनके राष्ट्रपति बनने से आदिवासी समाज का, न महिलाओं का कोई कल्याण होने वाला है, और न ही इस उद्देश्य से उनका चयन हुआ है, जैसा कि दावा किया जा रहा है.
जो भी हो, मुझे द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनाना एक और कारण से खास लग रहा है. उनके नाम की चर्चा शुरू होते ही अचानक यह सवाल मन में कौंधा था कि भारतीय मिथकीय इतिहास की एक चमकदार स्त्री पात्र द्रौपदी के प्रति हिंदू समाज की धारणा क्या है? मेरे ख्याल से उत्तर भारत के हिंदू, खास कर सवर्ण समाज में द्रौपदी नाम की लड़की/महिला बहुत कम मिलती हैं. मेरी समझ से तो पांच पांडवों, जिनको नायकों जैसी प्रतिष्ठा हासिल है, की साझा पत्नी होने के कारण ही तेजस्वी होने के बाबजूद द्रौपदी किसी के लिए आदर्श नहीं है. हालांकि उसने स्वेच्छा से पांच पतियों का वरण नहीं किया था. वह तो ‘धर्मराज’ ने शास्त्रों के अपने ज्ञान और तर्कों से सबों के साथ द्रौपदी को भी एक तरह से इसके लिए बाध्य कर दिया था. जब अर्जुन एक कठिन प्रतियोगिता जीत कर द्रौपदी को ‘हासिल’ कर लौटे और कहा कि देखो मां आज भिक्षा में क्या मिला है, तो माता कुंती ने बिना समझे कह दिया था- जो भी है, पांचों भाई आपस में बांट लो. बस युद्धिष्ठिर को ‘मौका’ मिल गया. द्रौपदी पांच भाइयों के बीच ‘बंट’ गयी. लेकिन द्रौपदी अपने अधिकारों के प्रति सजग थी और जब जो उचित लगा, साहस के साथ बोलती रही. अपने ‘सम्मानित’ बुजुर्गों को भरी सभा में धिक्कारा भी.
तभी तो डॉ लोहिया ने ‘सीता बनाम द्रौपदी’ की बहस भी चलायी थी. द्रौपदी को साहसी और अपने अधिकारों व स्वाभिमान के लिए मुखर और लड़ने वाली बताया था. कहा था कि भारत की स्त्रियों के लिए सीता नहीं, द्रौपदी आदर्श होना चाहिए.
भाजपा ने चाहे जिस कारण उनको इस पद के लायक माना, पर इसी बहाने ‘द्रौपदी’ का प्रतिष्ठित होना एक सुकूनदाई परिघटना है.
डिस्केलमर – ये लेखक के निजी विचार है