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RSS के सरकार्यवाह होसबोले ने कहा, अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया, लेकिन उनके एजेंटों ने उनके विचारों को जिंदा रखा...

New Delhi : अंग्रेज भारत छोड़कर चले गये लेकिन उनके एजेंटों, शिक्षाविदों, विश्वविद्यालयों और राय निर्माताओं ने देश को औपनिवेशिक विचारों से जकड़े रखा, छुटकारा पाने नहीं दिया. मुगलों से लड़ने वाले भारतीयों ने कभी खुद को इतना हीन महसूस नहीं किया, जितना वे ब्रिटिश शासन के अंदर महसूस करने लगे थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने यह विचार शुक्रवार को औपनिवेशिक विचारधारा के संदर्भ में व्यक्त किये.  नेशनल">https://lagatar.in/category/desh-videsh/">नेशनल

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पूर्व सांसद बलबीर पुंज की पुस्तक नैरेटिव, एक माया जाल लॉन्च

होसबले पूर्व सांसद बलबीर पुंज की पुस्तक नैरेटिव, एक माया जाल.. के लॉन्चिंग समारोह में बोल रहे थे. दत्तात्रेय होसबोले ने कहा, मुगलों की लंबी गुलामी के बाद भी भारतीय जनमानस ने कभी उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ नहीं माना, लेकिन अंग्रेजों के शासनकाल में कुछ लोगों ने इस तरह की कहानी(उनकी श्रेष्ठता की) गढ़ी, जिससे आम लोग स्वयं को कमजोर और उपेक्षित महसूस करने लगे. लोगों को अपनी ही संस्कृति की महानता पर संदेह करने लगे.

भारतीय संस्कृति की हर बात को अवैज्ञानिक करार दिया जाने लगा

होसबले का कहना था कि देश स्वतंत्र होने के बाद हमें इस सोच से बाहर आ जाना चाहिए था, लेकिन एक विशेष सोच से प्रभावित लोगों ने अपनी संस्कृति को कमजोर करके दिखाया जिसका नुकसान देश को झेलना पड़ा. हुआ. सरकार्यवाह ने कहा, यही वह नैरेटिव था, जिसमें भारतीय संस्कृति की हर बात को अवैज्ञानिक करार दिया जाने लगा. कहा कि नयी शिक्षा पद्धति से पढ़े लिखे कई वैज्ञानिक, शिक्षक, पत्रकार, न्यायमूर्ति सहित अन्य पढ़े लिखे लोगों ने इस नैरेटिव को आत्मसात कर लिया. लेकिन भारतीय लोगों को इस नैरेटिव से बाहर आ जाना चाहिए

अपने दिमाग को उपनिवेशवाद से मुक्त करने की आवश्यकता है

आरएसएस नेता ने कहा, एक विशेष सोच के कारण धार्मिक होने को कमजोर और पिछड़ा कह कर प्रचारित किया गया. कहा कि ऐसे नैरेटिव को तोड़ना जरूरी है. हमें सही सोच को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है." होसबले ने बलबीर पुंज की पुस्तक नैरेटिव, एक माया जाल को लेकर कहा कि यदि यह किताब अंग्रेजी में होती, तो दिल्ली के खान मार्केट में बिकती. लोग इसे किसी बुद्धिजीवी द्वारा लिखी गयी समझकर खरीदते और पढ़ते. लेकिन हिंदी की किताबें ऐसी नहीं होतीं. कहा कि भारत में अब यह माना जाने लगा है कि अंग्रेजी नहीं बोल सकने वाले बुद्धिजीवी नहीं हैं. हमें इस विचार से लडने और अपने दिमाग को उपनिवेशवाद से मुक्त करने की आवश्यकता है. [wpse_comments_template]

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