Sunil Badal
इस साल की दसवीं की राज्य बोर्ड परीक्षा में सरकारी विद्यालयों के एक भी छात्र के पास नहीं होने के बाद असम सरकार ने 34 स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है. इन स्कूलों के करीब एक हजार छात्र परीक्षा में शामिल हुए थे. वहां के नाराज शिक्षा मंत्री रनोज पेगू का कहना है कि सरकार शून्य रिजल्ट देने वाले ऐसे स्कूलों पर जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च नहीं कर सकती. राज्य का परीक्षाफल बीते पांच वर्षों में गिरता हुआ इस बार सबसे खराब था, क्योंकि परीक्षा में बैठने वाले चार लाख बच्चों में से केवल आधे से कुछ ही अधिक परीक्षा में सफल हो पाए थे. झारखंड में कुछ वर्ष किए गए प्रयोग की तरह इस शैक्षणिक वर्ष तक सभी शून्य प्रदर्शन करने वाले स्कूलों का आसपास के स्कूलों में विलय कर दिया जाएगा. असम सरकार के अधिकारियों का मानना है कि ऐसे चौंकाने वाले परिणामों के बाद इन स्कूलों को चलाने का कोई मतलब नहीं है.
झारखंड के शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो पूर्व में बंद ऐसे स्कूलों को फिर से चलाने की घोषणा कर चुके हैं और बिना स्थापित बहाली प्रक्रिया और पूरी शैक्षणिक योग्यता के काम कर रहे लाखों पारा टीचर को भी नियमित करने की घोषणा कर वाहवाही बटोर चुके हैं. इधर असम सरकार के फैसले पर राजनीतिक दलों की तीखी प्रतिक्रिया हुई है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि स्कूल बंद करना समाधान नहीं है. हमें पूरे देश में कई नए स्कूल खोलने की जरूरत है. स्कूल बंद करने के बजाय, स्कूल में सुधार करें और शिक्षा को सही बनाएं. बिहार और झारखंड के जितने वरिष्ठ नागरिक हैं, उनमें से ज़्यादातर सरकारी स्कूलों के पढ़े हुए हैं,पड़ोसी बंगाल और ओडिशा में आज भी सरकारी स्कूलों की पढ़ाई अच्छी है और वहां से निकले बच्चे अच्छी जगहों पर पहुंचते भी हैं, पर झारखंड बिहार में पिछले तीन दशकों में निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई और स्कूल-कॉलेज संचालकों ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को हर गली-मुहल्ले में खोलकर इसे उद्योग का रूप दे दिया है. सरकारी अस्पतालों की तरह इन सरकारी स्कूलों को बहुत ही सुनियोजित ढंग से बर्बाद भी किया गया और आज स्थिति ऐसी बन गई है कि सभी लोग शिक्षक तो सरकारी स्कूलों के बनना चाहते हैं, पर अपने बच्चों को उनमें पढ़ाना नहीं चाहते.
सवाल यह उठता है कि नौकरी देने के कारखाने बनते इन सरकारी स्कूलों की दुर्दशा क्यों है? मध्याह्न भोजन और छात्रवृत्ति, मुफ्त पुस्तकें, मुफ्त पोशाक जैसी सुविधाओं के बाद भी दिनों दिन कम होती उपस्थिति वाले सरकारी स्कूलों की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? यदि शिक्षकों की बात करें तो जनगणना, पशु गणना और बार-बार होने वाली बैठकों से लेकर डोनर एजेंसी विश्व बैंक के आंकड़ों को अपडेट करने के लिए उन्हें स्कूल छोड़कर विभिन्न दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. बार-बार होने वाले चुनाव और मतदाता सूची पुनरीक्षण जैसे कार्यों में उन्हें समय देना पड़ता है. ऐसे में पढ़ाई की निरंतरता निश्चित रूप से बाधित होती है. दूसरी तरफ कई टीवी समाचार चैनलों और अखबारों ने यह भी दिखाया कि बहुत से लोग जो सरकारी शिक्षक हैं या नियमित सेवा में हैं, उनके पास बच्चों को पढ़ाने की योग्यता नहीं है.
एक बार बिहार के कुछ शिक्षा मित्र नियमितीकरण के लिए सुप्रीम कोर्ट गए थे और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी थी कि मुखिया, जिला परिषद या इसी प्रकार के अन्य लोगों द्वारा बहाल किए गए बिना पूरी अर्हता के अस्थाई रूप से काम कर रहे शिक्षामित्र शिक्षा शत्रु हैं, जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे सकते. झारखंड के पहले शिक्षा मंत्री चंद्रमोहन प्रसाद ने एक बार टिप्पणी की थी कि सबसे अधिक फीस वाले निजी विद्यालयों से भी ज्यादा प्रत्येक बच्चे की प्राथमिक शिक्षा पर सरकार खर्च करती है.
सिद्धांत रूप से इन विद्यालयों को बंद कर यदि सर्वोच्च गुणवत्ता वाले निजी विद्यालयों को संचालन दे दिया जाए, तो निश्चित रूप से शिक्षा व्यवस्था संभल जाएगी. यह कटु सत्य भी है,पर प्रश्न उठता है कि ऐसे लोग बहाल कैसे हो जाते हैं? पहले या अभी भी अनेक प्रशिक्षण संस्थान अधिक प्राप्तांकों के आधार पर या मोटी फीस लेकर शिक्षकों को प्रशिक्षण देते हैं और वहां से पास करने के बाद उन्हें सरकारी नौकरियों के लिए योग्य मान लिया जाता है. दूसरी तरफ निजी शिक्षण संस्थान कड़े मापदंडों के आधार पर नियमित अंतराल पर परीक्षाएं आयोजित करते हैं, जिनका रिकॉर्ड उनके पास रहता है, जिससे बच्चे की प्रगति का आकलन किया जाता है. ऐसे में असम के शिक्षा मंत्री का कथन कि करदाताओं के महंगे पैसे को शिक्षा के नाम पर इस प्रकार लुटाना, जिसका कोई परिणाम न निकले कितना उचित है? एक बड़ा सवाल है. इस पर एक राष्ट्रीय स्तर की बहस होनी चाहिए और इन नकारा विद्यालयों और राजनेताओं की शह पर चलने वाली इस भ्रष्ट व्यवस्था पर नकेल कसने की आवश्यकता है, क्योंकि अक्षम शिक्षक आनेवाली पीढ़ी का भी भविष्य बर्बाद करते हैं और देश का मानव संसाधन भी.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.