Girish Malviya
अमेरिकी राष्ट्रपति बिडेन के आने के बाद पूरी दुनिया में घोर दक्षिणपंथी राजनीति पर खतरा मंडराने लगा है. भारत में पिछले डेढ़ महीने में जिस तरह का घटनाक्रम देखा जा रहा है. उससे यह साफ दिख रहा है कि अमेरिका की जमीन पर जाकर “अबकी बार ट्रंप सरकार” कहने वालों की बाइडेन ने मुश्किलें बढ़ाने की पूरी तैयारी कर ली हैं.
पहली कड़ी में अमेरिकी कंपनियों ने जैसे ट्विटर ने मोदी सरकार की उल्टी सीधी मांगों से किनारा कर लिया है. लेकिन बाइडेन सरकार अब बीजेपी के सबसे बड़े फाइनेंसर पर शिकंजा कसने लगा है.
दरअसल, अडानी ने म्यामांर में जिस कंपनी के पोर्ट डेवलपमेंट का कांट्रेक्ट किया है. उस कंपनी के मालिक पर संयुक्त राष्ट्र के जांचकर्ताओं ने नरसंहार और मानवता के खिलाफ अपराध करने का आरोप लगाया था.
हम जानते हैं कि म्यांमार की लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नागरिक सरकार के खिलाफ सैन्य तख्तापलट हो गया है. और इसी कड़ी में संयुक्त राज्य अमेरिका ने बर्मा सेना द्वारा प्रशासित की जाने वाली कंपनियों के कामकाज पर प्रतिबंध लगा दिया है. अडानी का कंटेनर पोर्ट डेवलपमेंट का करार भी ऐसी ही कंपनी के साथ था. जिसके मालिकों में राज्य प्रशासन परिषद के सदस्य के रूप में नियुक्त चार पूर्व सैन्य अधिकारी शामिल हैं.
म्यामांर में विकसित किये जाने वाला यह ऑस्ट्रेलिया के बाद अडाणी का दूसरा अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह था. अप्रैल-मई 2019 में जब भारत में आम चुनाव हो रहे थे. तब अडानी समूह को बड़े-बड़े सौदे दिलाए जा रहे थे. श्रीलंका में पोर्ट डेवलपमेंट का ठेका भी उसी दौरान दिया गया और उसी समय अडानी ग्रुप ने म्यांमार सशस्त्र बलों द्वारा नियंत्रित एक होल्डिंग कंपनी से पोर्ट डेवलपमेंट का वाणिज्यिक समझौता भी किया.
खास बात यह है कि अडानी ग्रुप ने उसी कंपनी से समझौता किया, जिसके खिलाफ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने 2018 में प्रकाशित पूर्ण रिपोर्ट ने सिफारिश की थीं कि किसी भी व्यवसाय को म्यांमार के सुरक्षा बलों या उनके द्वारा नियंत्रित किसी भी उद्यम के साथ आर्थिक संबंधों में प्रवेश नहीं करना चाहिए.
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.