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हूल क्रांति के महानायक सिदो कान्हू

Sarita Kumari हिदुस्तान के इतिहास में 10 मई 1857 अंग्रेजों के खिलाफ हुए पहले विद्रोह के रूप में दर्ज है. मगर, उससे दो साल पहले 30 जून 1855 को संताल की धरती से हूल क्रांति की चिंगारी भड़की थी. आज साहिबगंज के भोगनाडीह की गिनती भले ही अत्यंत पिछड़े इलाके में की जाती है, लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम की पहली मशाल यहां ही जली थी. बावजूद वह इतिहास के पन्नों में पहले विद्रोह का स्थान न पा सकी. दरअसल, मौजूदा संताल परगना का इलाका बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन हुआ करता था. बंगाल में 1793 में स्थाई बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा के प्रचलन शुरू होने के बाद से 17 जुलाई 1823 को ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार ने राजमहल की पहाडिय़ों के इलाके, जिसमें साहिबगंज का राजमहल, पाकुड़, गोड्डा और दुमका के 1356 वर्ग मील इलाके दामिनी-ए-कोह क्षेत्र को सौउरिया देश घोषित किया गया था. यहां केवल पहाडिय़ा ही राजा थे. यह भी माना जाता है कि संताल आदिवासी के कुछ परिवार हजारीबाग या फिर गिरिडीह के किसी इलाके से साहिबगंज पहुंचे थे. वे जंगलों की साफ-सफाई कर खेती योग्य भूमि तैयार कर खेतीबाड़ी कर जीवन-यापन करते थे. संताल आदिवासी काफी सीधे सादे लोग थे. उनकी खेती की पद्धति भी उतनी ही पुरानी थी. परिश्रम और मेहनत करने वाले इस जाति के अंग्रेज कायल थे. सर जार्ज कैंपबेल के मुताबिक संथाल उस जमीन पर अपना दावा करते थे, जिसे खेती योग्य बनाने के बाद लंबे समय से जुताई करते आ रहे थे. बार-बार उन्हें उनकी जमीन से बेदखल किए जाने से वे मजबूर हो चुके थे और हद यहां तक पहुंच चुकी थी कि अब पीछे हटने की स्थिति में नहीं थे. गरीब संथालों ने कर्ज की दस गुना अदायगी नहीं कर पाने की स्थिति में अपनी संपत्ति, बीवी और बच्चे तक को बिकते देखा था. इन ज्यादातियों के विरोध में संथालों के बीच क्रांति की ज्वाला सुलगने लगी. उन दिनों छिटपुट क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी. श्रीकंद के सहायक आयुक्त डब्लू. सी टेलर ने दुमका के उपायुक्त एआर थामसन को लिखा था कि संथाल जाति के लोग महेशपुर और पाकुड़ के राजाओं को तुच्छ नजरों से देखते हैं. इसकी पीछे कारण है कि इन दोनों राजाओं ने संथाल की जमीन बंगाली जमींदारों और महाजनों के नाम लिख दी थी. 1855 के 30 जून से पहले तक संथाली इसी बात को लेकर गांव में चर्चा कर रहे थे कि आखिरकार अपने अधिकार और स्वाभिमान की रक्षा के लिए किस तरह का कदम उठाया जाए. हालांकि, इससे पहले 1811, 1820, 1831 में छिटपुट विद्रोह का प्रमाण मिलता है. 1855 की शुरुआत बीरभूम, बांकुड़ा, हजारीबाग और छोटानागपुर इलाके में संथाल की सभा होने का प्रमाण मिलता है. प्रोफेसर सेन कहते हैं कि अंग्रेजों के साथ आदिवासियों की लड़ाई को सूक्ष्म नजर से देखें तो पाएंगे कि उनकी नेतृत्व क्षमता, उनके संचार तथा उनकी सैन्य शक्ति की व्यवस्था कितनी तगड़ी थी. कैसे लोगों को इकट्ठा किया गया और किस तरह की लड़ाई लड़ी गई. इसके पहले मांझी परगना की जो व्यवस्था थी, उसे धीरे-धीरे खत्म करने का कुचक्र कैसे तैयार किया गया. जिस कारण आदिवासी उग्र हो उठे. आदिवासियों की हुई सभा में सिदो ने अपनी बात कहते हुए लोगों से ‘करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो’ का नारा दिया था. इस दौरान सिदो ने जमा भीड़ से कहा था कि अब अंग्रेजों का शोषण नहीं सहेंगे. उनका मुंहतोड़ जवाब देने का यह सही वक्त है. माना जाता है कि वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो, अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया था. कहीं न कहीं गांधी सिदो के इस नारे से प्रभावित थे, जिसे संशोधित कर उन्होंने ‘करो या मरो, अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के नारे को दोहराया था. संथाल विद्रोह जिसे हूल क्रांति कहते हैं. इसमें सिदो-कान्हू की बहन फूलो-झानो की अहम भूमिका रही. उन दिनों फूलो झानो घोड़े पर बैठकर साल के तीन पत्ते वाली टहनियां लेकर गांव-गांव पहुंच रही थीं. ये पत्ते ग्रामवासियों को क्रांति में योगदान के लिए आमंत्रण पत्र हुआ करता था. इन दोनों बहनों ने गांव-गांव पहुंचकर लोगों को क्रांति के लिए तैयार रहने को कहा था. उनका कहना था कि कभी भी क्रांति का आगाज हो सकता है. इनकी इस संचार व्यवस्था से अंग्रेजी सैनिकों के कान खड़े हो गए तथा मौका पाकर अंग्रेजी सैनिक इन दोनों बहनों को उठाकर अपने साथ ले गए. बाद में उनकी हत्या कर दी गई. संथाल विप्लव विश्व का पहला आंदोलन था, जिसमें फूलो और झानो जैसी महिलाओं ने अपनी अहम भागीदारी निभाई थी. यही नहीं, इस विद्रोह में सिदो की पत्नी सूमी की महत्वपूर्ण भूमिका रही. आदिवासियों और मूलवासियों ने फिरंगियों के अत्याचार के खिलाफ ऐसी जंग लड़ी कि अंग्रेज मेजर बोरेज तथा कर्नल ओ मैली भी उनकी वीरता के कायल हुए थे. संथाली हार गए, मगर अंतिम दम तक लड़ते रहे. इस युद्ध में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 15 हजार क्रांतिकारी मारे गए थे, जबकि वास्तविक आंकड़े इससे अधिक हैं. उस संग्राम में स्थिति इस कदर बिगड़ी कि सरकार को 19 जुलाई 1955 को मार्शल लॉ लगानी पड़ी. इस दौरान सरकार ने आदेश जारी किया कि जो भी व्यक्ति हथियार से लैस पाया जाएंगे, उन्हें खत्म कर दिया जाएगा. साथ ही बगावत के सरगना के पकड़वाने पर 10,000, हर दीवान की सूचना देने के लिए पांच हजार, हर मुखिया को पकड़वाने के लिए एक हजार रुपये तक की घोषणा की गई. इस लालच में कई लोग आ गए. बरहाईत की चल रही लड़ाई में चांद-भैरव वीरगति को प्राप्त हुए. जबकि सिदो और कान्हू के साथियों को पैसे के बल पर खरीदकर उपरबंदा गांव के पास कान्हू को गिरफ्तार कर लिया गया. बाद में सिदो को भी बंदी बनाया गया. 26 जुलाई 1856 को दोनों भाइयों को फांसी दी गई. इसमें सिदो को बरहाईत तथा कान्हू को भोगनाडीह में फांसी दी गई. इस दौरान जेल में बंद प्रमुख क्रांतिकारी विजय मांझी की मौत हो गई. इस संथाल विद्रोह के परिणामस्वरूप 30 नवंबर 1856 को विधिवत संथाल जिला की स्थापना की गई. (एक लंबे शोध पत्र के कुछ अंश) डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]

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