तो क्या तालिबान को लेकर बदल रह है दुनिया का नजरिया !

Faisal Anurag तालिबान की सरकार को दुनिया के किसी भी देश ने मान्यता नहीं दी है, जबकि तालिबान और दुनिया के बीच की बनी दूरी अब मिटती नजर आने लगी है. इसी साल 15 अगस्त को तालिबान ने काबुल फतह किया था. अफगानिस्तान की चुनी हुयी सरकार के राष्ट्रपति अब्दुल गनी अपने सहयोगियों के साथ रातोरात काबुल छोड़ भाग गए थे. अमेरिका सहित दुनिया के सभी बड़े देशों ने अफगानिस्तान में एक साझा और सभी तबकों के प्रतिनिधित्व वाली सरकार का दबाव बना था. लेकिन तालिबान ने साझा और सब के प्रतिनधित्व वाली सरकार के दबाव को महत्व नहीं दिया. ताजा घटनाक्रम में ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन (OIC) विदेशमंत्रियों की दो दिवसीय बैठक इस्लमावाद में हो रही है. इस ``असाधारण सत्र`` में अमेरिका, जर्मनी, जापान, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, फ़्रांस समेत अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के प्रतिनिधियों के शामिल होने की संभावना है. तालिबान के विदेश मंत्री भी इसमें शामिल हैं. यह बैठक अफगानिस्तान के संकट के निदान के लिए आयोजित किया गया है. इस बैठक का प्रस्ताव सउदी अरब ने दिया था और इसकी मेजबानी पाकिस्तान कर रहा है. इसमें बांग्लादेश के विदेशमंत्री और सचिव भी भाग ले रहे हैं. पाकिस्तान ओर बांग्लादेश के बीच 1971 के 9 महीने के मुक्ति संग्राम के बाद से संबंध सहज नहीं रहे हैं. हालांकि दोनों देशों के बीच राजयनिक संबंध हैं लेकिन बांग्लादेश का कोई प्रतिनिधिमंडल 2012 के बाद इस्लामाबाद गया है. बांग्लादेश की मुक्ति के 50वें साल के नजरिए से यह एक बड़ा संकेत है. तालिबान के सत्ता में आने के बाद से ही अफगानिस्तान एक बड़े मानवीय संकट में है. भारत ने भी तालिबान को आनाज और दवा दी है. अमेरिका के बदलते तेवर से जान पड़ता है कि वह भी मानवीय मदद के लिए मन बना चुका है. अमेरिका ने काबुल से वापसी के समय ही अफगानिस्तान के केंद्रीय बैंक पर बाहरी मदद को एक तरह से प्रतिबंधित कर दिया था. अमेरिका की एक उच्चस्तरीय कमेटी ने भी अमेरिकी सकरार से मदद देने की अपनी की है. तालिबान की सत्ता के दोर में मानवाधिकार और लोकतंत्र को लेकर अनेक बंदिशें लगी हुयी हैं. अमरिका ने अभी हाल ही में लोकतंत्र के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया जिसमें उसने अफगानिस्तान को आमंत्रित नहीं किया. यहां तक कि उसने पाकिस्तान की भी मदद नहीं की.आतंकवाद के संदर्भ में जारी ताजा रिपोर्ट में अमेरिका ने पाकिस्तान की सराहना की है. खास बात यह कि तालिबान संकट को हल करने में की गयी मदद के लिए. तो क्या तालिबान के साथ ही अमेरिका की पाकिस्तान नीति भी बदल रहीं है. OIC बैठक के संदर्भ में पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने कहा है कि अफगानिस्तान में मानवीय संकट का समाधान खोजने की दिशा में एक वैश्विक कदम है और दुनिया और तालिबान के बीच की खाई को पाटने में सकारात्मक पहल की तरह है.अफगानिस्तान में स्थिति गंभीर है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार देश की लगभग आधी आबादी भूख के संकट के स्तर का सामना कर रही है. विश्व खाद्य कार्यक्रम का अनुमान है कि अफगानिस्तान में 32 लाख बच्चे गंभीर कुपोषण के खतरे में हैं. यूएनडीपी को डर है कि जब तक मानवीय संकट से निपटने के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए गए, 97 फीसदी अफगान गरीबी रेखा के नीचे आ सकते हैं.जिस तरह अफगानिस्तान के नागरिक देश से बाहर जा रहे हैं, उससे आसपास के सभी देश चिंतित हैं. देरसबेर इसकी आंच यूरोपीय देशों को भी महसूस होगी. तुर्की ने तो अपनी सीमाओं पर रखवाली तेज कर दी है जबकि पूर्व सोवियत देशों के लिए भी अफगान शरणार्थी संकट के बादल मंडरा रहे हैं. इसे लेकर रूस और चीन भी चिंतित हैं. अमेरिका ने जिन अफगानियों को शरण दी थी उनके लिए बेहतर जिंदगी की राह अभी तक बंद है. आईओसी के निमंत्रण पर अमेरिका, जर्मनी, जापान, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, फ़्रांस समेत अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के प्रतिनिधियों की मौजूदगी बता रही है कि कूटनीतिक सतर पर बदलाव की शुरूआत हो चुकी है. कई देश जिन्होंने काबुल में अपने मिशन बंद कर दिए थे, वे जल्द ही कुछ कार्यालय खोल सकते हैं. भले ही यह किसी मान्यता के बराबर न हो. अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसियों से भी देश में अपनी उपस्थिति फिर से स्थापित करने की उम्मीद की जा रही है. जिसका अर्थ होगा देश में अधिक से अधिक राजनयिक और वित्तीय गतिविधियों का बढ़ना. हालांकि अफगानिस्तान में लोकतंत्र,चुनाव ओर सभी समूहों की भागीदारी वाली सरकार की जरूरत को नजरअंदाज करना खतरनाक होगा. अफागानिस्तान में लोकतंत्र को बाहर से थोपने का प्रयोग विफल हो गया, बावजूद लोकतंत्र के नए दौर के लिए अफगानियों को तैयार करने का दायित्व भी विश्व जनमत का ही है. [wpse_comments_template]
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