Faisal Aanurag
उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच आर्थिक और राजनीतिक संस्कृति में इतना फर्क क्यों है? इस सवाल को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है. चूंकि लोकसभा में उत्तर के राज्यों की संख्या दक्षिण से ज्यादा है. इस लिहाज से दिल्ली से देश को शासित करने का चाहे जितना फख्र उत्तरी राज्यों को हो, लेकिन विकास के मानकों पर वे दक्षिण का मुकाबला नहीं कर सकते. इसका एक बड़ा कारण राजनीतिक नजरिया है.
विधानसभा चुनाव के दौरान केरल में राहुल गांधी ने जब कहा कि दक्षिण भारत की राजनीतिक बहस उत्तर की तुलना में कहीं ज्यादा जरूरी सवालों के इर्दगिर्द रहती है, तब भाजपा सहित उत्तर भारत के अनेक बुद्धिजीवी राहुल के खिलाफ हमलावर हो उठे थे. लेकिन एमके स्टालिन के कुछ कदमों ने इस बहस को एक बार फिर जीवंत कर दिया है. इस समय जबकि उत्तर भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जिन्न एक बार फिर से खड़ा किया जा रहा है, तो कर्ज में डूबे तमिलनाडु ने आर्थिक फ्रंट पर नयी रणनीति बनाने के लिए दुनिया के चार बड़े अर्थशास्त्रियों को अपना सलाहकार बनाया है. जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सलाहकारों में एक भी ऐसा नाम नहीं है, जिसे एशिया में भी जाना जाता हो. इस समय जब भारत की अर्थव्यवस्था निगेटिव ग्रोथ का शिकार है, मोदी सरकार की ओर से ऐसी कोई पहल भी नहीं दिख रही है, जिससे लगे कि वह आर्थिक विशेषज्ञों को महत्व देने जा रही है.
यह हाल तब है, जब भारत के कई जानेमाने इकोनॉमिस्ट दुनिया में नाम कमा रहे हैं. नरेंद्र मोदी के ही शासन काल में भारत के अभिजीत बनर्जी को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. ज्यां द्रेज एक ऐसे अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने दुनिया के तीन नोबल लॉरेट के साथ संयुक्त शोधपत्र लिखा है. इसमें डॉ अमर्त्य सेन और अग्युस्ट डिटन प्रमुख हैं. डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में वे नेशनल एडवाइजरी बोर्ड के सदस्य भी रहे. मनरेगा और खाद्य सुरक्षा कानूनों के निर्माण में उनकी अहम भूमिका रही है. उनके ज्यादातर शोध उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्यों पर हैं. लेकिन इन चारों राज्यों की सरकारों ने कभी भी उनके अनुभव का लाभ उठाने का प्रयास नहीं किया. इन चारों राज्यों के तमाम आर्थिक आंकड़ें उनकी शर्मिंदगी के लिए काफी है.
केरल ने तो 1960 के बाद से ही विकास की एक सुनियोजित नीति और तंत्र का विकास कर लिया था. केरल में सरकार चाहे जिस की भी रही हो, वहां की राजनीति में विकास के मानदंड ही चुनावी हार-जीत को तय करते हैं. केरल हो या तमिलनाडु, सांप्रदायिक राजनीति लोगों को आकर्षित नहीं करती है, तो इसके कारण विकास के संदर्भ से ही जुड़े हैं. दक्षिण की राजनीति इसी प्रक्रिया में उत्तर के राज्यों से आगे निकल जाती है. भाजपा के केरल अध्यक्ष तक को कहना पड़ा, केरल में शिक्षा के प्रसार के कारण भाजपा की नीतियां और ध्रुवीकरण की राजनीति विफल होती है.
अभी जिन राज्यों में चुनाव हुए, उसमें तमिलनाडु की सबसे बड़ी चिंता राज्य को कर्ज के बोझ से मुक्त करने की है. इसके लिए स्टालिन ने देश और दुनिया के चार बड़े अर्थ विशेषज्ञों को सलाहकार बनाया है. इसमें एस्थर डुफले हैं, जिन्हें अभिजीत बनर्जी के साथ नोबल पुरस्कार मिला था. डुफलो और बनर्जी जीवनसाथी भी हैं. डुफलो ने बिहार व यूपी पर अनेक शोध किये हैं. स्टालिन की टीम में ज्यां द्रेज भी हैं और रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके रघुराम राजन भी हैं. इसके साथ मोदी के प्रमुख आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविंद सुब्रह्मण्यम भी हैं. अरविंद की सलाहों को मोदी की सरकार में महत्व नहीं मिला था, जिससे नाराज होकर उन्होंने प्रमुख एडवाइजर पद से इस्तीफा दे दिया था.
यूपी की राजनीति जनसंख्या विवाद और धर्म परिवर्तन के बहाने एक बार फिर सांप्रदायिक सवालों के इर्दगिर्द जा चुकी है और असम ने विकास का एजेंडा छोड़ कर जनसंख्या के सवाल को प्रमुख बना लिया है. बंगाल केंद्र के कोप का शिकार होने के बावजूद अभिजीत बनर्जी से सलाह ले रहा है. इन विशेषज्ञों की सोच एक उदारवादी और लोककल्याणकारी अर्थसंरचना पर जोर देती है, लेकिन वह विकास के आधुनिक संदर्भों को भी साथ लेकर चलती है.
भारत तो लंबे समय तक लोककल्याणकारी राज्य रहा है, लेकिन मोदी सरकार ने उसके इस स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया है. इसका परिणाम यह है कि भारत की वह छवि धूमिल हो गयी है, जिसमें 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से मुक्त किये गये थे. ताजा आंकड़े बताते हैं कि इस समय 21 करोड़ नये लोग गरीबी रेखा के नीचे जा चुके हैं. इसका एक बड़ा कारण काबिल आर्थिक विशेषज्ञों की उपेक्षा है. हिंदी पट्टी के राज्यों की भी यही दशा है. जाहिर है स्टालिन ने वह कर दिखाया है, जो मोदी कभी नहीं कर सके.