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सुशील प्रकरण तो कुश्ती महासंघों की आंतरिक राजनीति को भी बेपर्द करता है

Faisal Anurag
स्वर्ण,रजत और कांस्य पदकों की चकाचौध तथा कुश्ती पर एकाधिकार के सपने के कारण सुशील कुमार न केवल हत्या के मामले में गिरफ्तार हैं. बल्कि भारतीय कुश्ती की गरिमा और प्रशासकीय प्रणाली पर कई सवाल खड़ा कर दिया है. सवाल तो उसी समय खड़ा होना चाहिए था, जब 2016 के रियो ओलंपिक की पात्रता की दौड़ में सुशील नरसिंह यादव से पिछड़ गए थे. लेकिन पूरा कुश्ती प्रशासन सुशील कुमार को एक और मौका देने के लिए साजिशों में शामिल हो गया. जिस तरह हरियाणा में प्रशिक्षण के दौरान नरसिंह यादव को एक डोप विवाद का शिकार बनाया गया, वह चौंकाने वाला था. लेकिन कुश्ती महकमे की आंख नहीं खुली. भारत केवल इस मामले ने कुश्ती के अलावे भी कई खेलों के महासंघों को कठघड़े में ला खड़ा किया है. जिसने नयी प्रतिभाओं के अवसरों को छीनने की साजिशें हावी रहती हैं.

बिजिंग में सुशील ने 1952 के बाद पहली बार भारतीय राष्ट्रगान बजा. यह एक बड़ी उपलब्धि थी. के. डी. यादव ने 1952 में कुश्ती में कांस्य पदक जीता था. जब भारत केवल पुरूष हॉकी ही पदक जीत पाती थी. मिल्खा सिंह, पीटी उषा और अंजू बॉबी मॅथ्यू ने दुनिया के स्तर पर अपनी चमक बिखेरा,.लेकिन वे कभी भी ओलम्पिक में पदक नहीं जीत पाए. रजत पदक से हत्या के मामले में गिरफ्तारी केवल एक व्यक्ति के ही पतन की कहानी नहीं है. इससे यह तो जाहिर होता ही है कि न जाने कितनी ऐसी प्रतिभाएं खेल संघों के आंतरिक राजनीति,क्षेत्रवाद,जातिवाद और साजिशों के कारण जलवा बिखेरने के पहले ही दम तोड़ गयीं. विभिन्न खेलों में ऐसी प्रतिभाओं की फेहरिस्त लंबी है.

न तो नरसिंह यादव की घटना अकेली है और न सागर धनकड़ की हत्या का मामला अपवाद है. यदि गहरायी से जांच हो तो हरिया दिल्ली में ही ऐसे अनेक मामले प्रकाश में आ सकते हैं. ज्यादातर खेल संघों पर राजनीतिज्ञों का ही दबदबा है, तो यह कैसे संभाव था कि खेल की दुनिया उन बुराइयों से बच जाए जो भारत की राजनीतिक पहचान है. इसलिए सुशील कुमार सागर धनकड़ की हत्या को गहरायी से देखने जानने की जरूरत है.

वह दौर तो न जाने कब का गुजर चुका है जब कुश्ती के अखाड़े विवादों से दूर रहते थे. वे गुरूओं की पवित्रताओं और नैतिकबलों के लिए जाने जाते थे. अब तो कुश्ती उत्तर भारत में देश के लिए पदक पाने से ज्यादा पुलिस या रेलवे में नौकरी का लॉन्चपैच की तरह बन गया है. हरियाणा में युवाओं के लिए सेना के बाद कुश्ती एक बड़ा आकर्षण है, जो उन्हें राज्य स्तर पर पहचान बनाने के बाद पुलिस या रेलवे में रोजगार दिला देता है. पहलवान चंदगीराम, सतपाल, करतार, सुदेश, जगमिंदर, प्रेमनाथ का दौर अब नहीं है, जब अखाड़ों को आधत्मिकता प्राप्त थी.

हरियाणा में अब तो यह माना जाने लगा है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिले पदकों ने तो हरियाणा के अखाड़ों का पूरा चरित्र ही बदल दिया है. वहां असामाजिक तत्वों की दबंगई और पहरा आम है. छत्रपाल स्टेडियम का गोलीकांड इसका वह चेहरा है, जो उजागर हुआ है. सुशील नरसिंह विवाद के समय जो अलार्म बज उठा था, यदि उसे सुना गया होता तो सागर जैसे पहलवान की हत्या भी नहीं होती और सुशील जमीन और वर्चस्व के शिकार भी नहीं होते.
खेल महासंघों में सुधार की जरूरत है. उसे उन तत्वों से मुक्त कराए जाने की भी जरूरत है, जो खेलों की विशेषज्ञता नहीं रखते हैं. एक बड़े सुधार के बगैर भारत के खेलों में प्रतिभाओं का इस तरह का हश्र रोका नहीं जा सकता और नयी संभावनाओं को पूरी तरह अपनी क्षमता दिखाने के पहले ही दबंग खिलाड़ियों और उनके आकाओं के कोप का शिकार होना पड़ता रहेगा.

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