Faisal Anurag
कांग्रेस के ”काबिल, अनुभवी और संघर्षशील” नेता जो खुद को जी-23 का सदस्य कहते हैं, कहां छुप गए हैं. लखीमपुर खीरी के तिकोनिया जनसंहार का मामला हो, या एक हिस्ट्रीशीटर मंत्रीपुत्र का आतंकी अपराध, या फिर प्रियंका गांधी की गिरफ्तारी या फिर किसानों के दर्द को साझा करने का सवाल. ये सीनियर नेता तटस्थ क्यों हैं. यह कोई पहला अवसर नहीं है, बल्कि हाथरस हत्याकांड को या भीमाकोरेगांव के दलितों का दमन या फिर गुजरात का उना या फिर शाहीनबाग का ऐतिहासिक प्रतिरोध, ये नेता कभी भी बोलते या हिस्सेदारी निभाते नजर नहीं आये.
कपिल सिब्बल ने तो मीडिया से बात करते हुए बड़े फक्र से कहा था कि वे जी हुजूर 23 के सदस्य नहीं हैं. लेकिन कांग्रेस में नेतृत्व बदलाव की मांग करने वाले ये नेता क्या चुप रह कर ही कांग्रेस को बचा सकेंगे. विपक्ष को सक्रिय होने का रोना रोने वाले सिविल सोसाइटी के भी अनेक लोगों की चुप्पी है कि टूटने का नाम ही नहीं लेती.
दरअसल, देखा यह जा रहा है कि देश को इस समय एक ऐसे विपक्ष की जरूरत है जो निरंकुशता के दिन ब दिन मजबूत होते इरादे के खिलाफ चट्टान की तरह डट कर खड़ा जो जाये. वक्त की जरूरत तो यह भी है कि केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ भी जबरदस्त तरीके से विपक्ष अपने इरादे और अस्तित्व का इजहार करे. लेकिन कांग्रेस के ज्यादातर नेता पार्टी में अहम पद तो चाहते हैं. यह भी चाहते हैं कि पार्टी नेतृत्व उनके अनुसार चले. लेकिन जोखिम लेने से कतराते हैं. पिछले सात सालों से देश की पूरी आर्थिक सामाजिक ढांचे को बदलले का कोशिशें जारी हैं. यहां तक संविधान और लोकतंत्र पर संकट लगातार गहराता जा रहा है. प्रभावी मीडिया का चेहरा और चरित्र पूरी तरह बदल चुका है. नौकरशाही का बड़ा हिस्सा भी सरकार के ताबेदार के रूप में अपनी सेवाएं देने के लिए घुटना टेक चुकी हैं.
लेकिन देश के भीतर प्रतिरोध के स्वर भी तेजी से बुलंद हो रहे हैं. किसानों का आंदोलन एक साल की यात्रा पूरी करने जा रहा है. इसने जिस साहस,संकल्प और धैर्य का परिचय दिया है वह बेमिसाल है. किसानों ने न केवल गांवों के राजनीतिक चेहरे को बदलने का इरादा जता दिया है, बल्कि उसके असर का ही नतीजा है कि आज कोई भी पहलू उससे अछूता नहीं है.
प्रियंका गांधी हों या फिर दीपेंद्र हुड्डा या फिर अजय कुमार लल्लू इस समय योगी की जेल में हैं. पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखजिंदर रंधवा को यूपी प्रवेश से न केवल रोका गया बल्कि यूपी पुलिस ने एक तरह से उनके साथ बदसलूकी भी की. पूर्व भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले के साथ बदसलूकी की गयी. उनके साथ तो जो व्यवहार किया गया वह बताता है कि सत्ता कितनी बर्बर हो चुकी है.
यही नहीं टीमएमसी और भीम आर्मी के सदस्य तिकोनिया पहुंची. लेकिन कांग्रेस के जी 23 सदस्यों की चुप्पी के रहस्य को तो आसानी से समझा जा सकता है. राहुल गांधी ने ठीक ही तो कहा था जिन्हें डर लग रहा है वो पार्टी से जा सकते हैं. कई निडर लोग हैं, जो कांग्रेस में नहीं हैं, ऐसे लोगों को आना चाहिए और वैसे कांग्रेसी जो बीजेपी से डरे हुए हैं, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए. हमें ऐसे लोगों की ज़रूरत नहीं है, जो आरएसएस की सोच में विश्वास रखते हैं. हमें निडर लोगों की ज़रूरत है. ये हमारी विचारधारा है. लखीमपुर खीरी उस साहस और राजनीति की प्रतीक्षा कर रहा है जो दमन, हत्या और डराने की राजनीति के खिलाफ किसानों और अन्य वंचितों के साथ सझेदारी दिखाये.
एक ब्लैक युवक की पुलिस ने जब हत्या की तो पूरा अमेरिका उस हत्याकांड के खिलाफ उठ खड़ा हुआ. ब्लैक लाइव मैटर्स पूरी दुनिया का स्वर बन गया. तो क्या भारत के एक इलाके में किसी एक हिस्ट्रीशीटर के पुत्र और उसके मवालियों को किसानों को कुचल कर मार देने के राजनीतिक संरक्षण के खिलाफ छूट मिलती रहेगी.
हाथरस में तो एक दलित की बेटी को रेप के बाद मार दिया गया. लेकिन यूपी में जो कुछ चल रहा है उस पर किसी भी राजनीतिक नेता की चुप्पी को सामान्य तो नहीं ही माना जा सकता है. रामधारी सिंह दिनकर की कविता की पंक्ति जो बाद के दिनों में नारे की तरह इसतेमाल हुआ, को याद किये जाने की जरूरत है :
””समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध””
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