Srinivas
गणेश शंकर विद्यार्थी हिंदी पत्रकारिता की क्रांतिकारी विरासत के प्रतीक थे. एक ऐसी पत्रकारिता जिसने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिया भूमिका निभायी बल्कि साम्राज्यवाद पर वैचारिक प्रहार भी किया. भारतीय पत्रकारिता में विद्यार्थी जी का योगदान अप्रतिम है. उनके बारे में उस जमाने में कहा जाता था कि उनका एक पांव हमेशा जेल में रहता है. 25 अप्रैल 1931 को उनकी शहादत तब हुई, जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी के खिलाफ हड़ताल का आयोजन किया गया और सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे. हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के मील के पत्थर ”प्रताप” का पहला संपादकीय यहां प्रस्तुत है. वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास ने इस संपादकीय को उपलब्ध कराया है.
“आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर विश्वास रख कर ”प्रताप” कर्मक्षेत्र में आता है. समस्त मानव जाति का उत्थान हमारा परमोदेश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं. उन्नति से अभिप्राय देश की कृषि, व्यापार, विद्या, कला, वैभव, मान, बल, सदाचार और चरित्रता की वृद्धि से है. भारत को इस उन्नतावस्था तक पहुंचाने के लिए असंख्य उद्योगों, कार्यों और क्रियाओं की आवश्यकता है. इनमें से मुख्यतः राष्ट्रीय एकता, सुव्यवस्थित, सार्वजनिक और सर्वांगपूर्ण शिक्षा का प्रचार, प्रजा का हित और भला करने वाली सुप्रबंध और सुशासन की युद्ध-नीति का राजकार्यों में प्रयोग, सामाजिक कुरीतियों का निवारण तथा आत्मावलंबन और आत्म-शासन में दृढ निष्ठा है. हम इन्हीं सिद्धांतों और साधनों को अपनी लेखनी का लक्ष्य बनायेंगे.
हम अपनी प्राचीन सभ्यता एवं जातीय गौरव की प्रशंसा करने में किसी से पीछे न रहेंगे और अपने पूजनीय पुरुषों के साहित्य, दर्शन, विज्ञान तथा धर्म-भाव का यश सदैव गायेंगे, किंतु अपनी जातीय निर्बलताओं व सामाजिक कुसंस्कारों तथा दोषों को प्रकट करने में हम कभी बनावटी जोश या मसलहत-वक्त से काम न लेंगे, क्योंकि हमारा विश्वास है कि मिथ्या अभिमान जातियों के सर्वनाश का कारण होता है. किसी की प्रशंसा या अप्रशंसा, किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता, किसी की घुड़की या धमकी, हमें अपने सुमार्ग से विचलित न कर सकेगी. सांप्रदायिक और व्यक्तिगत झगड़ों से ”प्रताप” सदा अलग रहने की कोशिश करेगा. उसका जन्म किसी विशेष सभा, संस्था, जाति या मत के पालन-पोषण, रक्षण या विरोध के लिए नहीं हुआ, किंतु उसका मत स्वतंत्र विचार और उसका धर्म सत्य होगा. मनुष्य की उन्नति भी सत्य की जीत के साथ बंधी है.
इसीलिए सत्य को दबाना हम महापाप समझेंगे, उसके प्रचार और प्रकाश को महापुण्य! हम जानते हैं कि हमें बड़ी-बड़ी कठिनाइयों सामना करना पड़ेगा और इसके लिए बड़े भारी साहस तथा आत्मबल की आवश्यकता है. हमें यह भी अच्छी तरह मालूम है कि हमारा जन्म निर्बलता, पराधीनता एवं अल्पज्ञता के वायुमंडल में हुआ है, तो भी हमारे हृदय में सत्य की सेवा करने के लिए आगे बढ़ने की इच्छा है, हमें अपने उद्देश्य की सच्चाई तथा अच्छाई का अटल विश्वास है, इसलिए हमें अंत में इस शुभ और कठिन कार्य में सफलता मिलने की आशा है. लेकिन जिस दिन हमारी आत्मा इतनी निर्बल हो जाये कि हम अपने प्यारे उद्देश्य से डिग जायें, जान-बूझ कर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें, और उदारता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखायें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ-ही-साथ हमारे जीवन का भी अंत हो जाये!’’
गणेश शंकर विद्यार्थी, 9 नवंबर, 1913
(”प्रताप” का पहला संपादकीय)