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1967 में शुरू हुई थी सरहुल की ऐतिहासिक शोभायात्रा, 20 हजार आदिवासियों की थी भीड़ : जगलाल पाहन

1967 में निकाली गयी थी सरहुल की पहली शोभायात्रा Ranchi :   प्रकृति पर्व सरहुल की ऐतिहासिक शोभायात्रा की शुरुआत 1967 में हुई थी. इस भव्य शोभायात्रा की शुरुआत हातमा सरना स्थल से हुई और सिरमटोली सरना स्थल में संपन्न हुई थी. यह शोभायात्रा पारंपरिक रीति-रिवाजों और धार्मिक आस्था के साथ निकाली गयी थी, जिसमें हजारों की संख्या में आदिवासी समाज के लोग शामिल हुए थे. ये बातें रांची के मुख्य जगलाल पाहन ने बतायी.

मादी पाहन की अगुवाई में की गयी थी पूजा-अर्चना

इस अवसर पर स्वर्गीय मादी पाहन के नेतृत्व में हातमा सरना स्थल पर पारंपरिक और रूढ़िगत विधि से पूजा-अर्चना की गयी थी. पवित्रता और धार्मिक मान्यताओं के तहत पांच मुर्गों की बलि देकर शोभायात्रा का शुभारंभ किया गया था. मौके पर डॉ. रामदयाल मुंडा, कार्तिक उरांव, दुखी पाहन, महादेव उरांव, उमाचरण भगत, विधायक साधो कुजूर, जगा उरांव, महली टोप्पो और हातमा मौजा समेत अन्य स्थानों से हजारों आदिवासी समाज के लोग शोभायात्रा में शामिल हुए थे.

शहर की सड़कों पर 10 किमी लंबी शोभायात्रा

रांची के मुख्य जगलाल पाहन ने बताया कि हातमा से निकली यह शोभायात्रा सैनिक चौक, रेडियम रोड, कचहरी रोड, शहीद चौक, फिरायालाल, मेन रोड, क्लब रोड और मुंडा चौक होते हुए सिरम टोली सरना स्थल पहुंची थी. इस पहली शोभायात्रा में लगभग 20 हजार लोग शामिल हुए थे और यह पूरे 10 किलोमीटर तक शहर में निकाली गयी थी.

पारंपरिक वेशभूषा नहीं थी, लेकिन माहौल भक्तिमय था

इस शोभायात्रा में पारंपरिक वेशभूषा का अभाव था, लेकिन पूरे रास्ते में नगाड़े, मांदर, शहनाई और ढाक की गूंज से माहौल भक्तिमय हो गया था. शोभायात्रा में शामिल महिलाएं सामान्य साड़ी पहनी थीं. जबकि पुरुष ने सफेद धोती और गंजी धारण किये थे. यह यात्रा हर्षोल्लास और भक्ति से परिपूर्ण थी.

आदिवासी संस्कृति को पहचान दिलाने ऐतिहासिक पहल थी

पाहन ने बताया कि इस शोभायात्रा का मुख्य उद्देश्य आदिवासी धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज की एकता को दुनिया के सामने लाना था. इससे पहले आदिवासी समाज की पूजा-पद्धति और रीति-रिवाजों से अधिकांश लोग अनजान थे. आदिवासी समाज आदिकाल से प्रकृति की पूजा करता आया है, जिसमें पेड़-पौधे, नदियां, पहाड़, जल, जंगल और जमीन को देवता मानकर उनकी उपासना की जाती रही है. फसल की बुआई से लेकर कटाई तक विभिन्न अनुष्ठान किये जाते हैं, जिससे प्रकृति से जुड़ी यह परंपरा आज भी जीवंत बनी हुई है. यह शोभायात्रा न केवल एक धार्मिक आयोजन थी, बल्कि आदिवासी संस्कृति को वैश्विक पहचान दिलाने की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल भी थी.

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