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मामला मजहबी नहीं, निखालिस तेजाबी है

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बैजनाथ मिश्र

बीते पांच सितंबर को ईदमिलादुन्नबी के मौके पर कश्मीर और मध्य प्रदेश में जो कुछ हुआ वह हैरतअंगेज है. मध्य प्रदेश के इंदौर में मोहम्मद साहब की याद और शान में निकाले गये जुलूस में सर तन से जुदा वाले नारे लगाये गये. ये नारे क्यों लगे, इसकी कोई वाजिब वजह अब तक सामने नहीं आयी है. इसलिए इसे एक अग्रिम चेतावनी के रुप में देखा जा रहा है.

पिछले कुछ वर्षों से यह नारा बेहद अफसोसनाक तरीके से सिर्फ उकसावे के मकसद से जहां-तहां लगाया जा रहा है. लेकिन इस्लाम के आलिमों ने इसकी पुरजोर मजम्मत करना मुनासिब नहीं समझा. नतीजा यह हुआ छह सितंबर को भोपाल में गणेश प्रतिमाओं की विसर्जन यात्रा पर पथराव हो गया. कुछ प्रतिमाएं खंडित हो गईं और कुछ श्रद्धालु चोटिल हो गए. कहा जा सकता है कि शासन प्रशासन की काहिली या नामुश्तैदी का नतीजा है. लेकिन क्या हमारे पर्व-त्योहार संगीनों के साये में ही संपन्न होंगे? 

इन दोनों घटनाओं में मजहब कहां है या मजहबी टकराव की वजह क्या है? यह इरादतन शरारत है, बददिमागी है या फिर बंददिमागी और जब कार्रवाई होगी तो सेक्युलरिज्म के सूरमा अपनी-अपनी डफली लेकर गंगा-जमुनी तहजीब के तराने पर थाप देने लगेंगे. 

बहरहाल, अब चलते हैं कश्मीर की राष्ट्र विरोधी घटना पर. श्रीनगर में एक हजरतबल दरगाह है. मान्यता है कि यहां हजरत मोहम्मद का बाल संरक्षित है. इसलिए इस्लाम मतावलंबियों के लिए यह जगह मुकद्दस है. यह बाल सही है या गलत, 1963 में कहीं गायब हो गया था या किसी ने चुरा लिया था. यह खबर जैसे ही फैली, कश्मीर और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के हिन्दुओं पर कहर बरपने लगा. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू सकते में आ गये. उन्होंने सीबीआई निदेशक को तलब किया और आदेश दिया कि चार दिन में बाल को बरामद करो और साजिश रचने वालों को गिरफ्तार करो. उस समय शायद भोलानाथ मल्लिक सीबीआई प्रमुख थे. उनकी तत्परता से बाल बरामद हो गया और तीन लोग गिरफ्तार कर लिये गये. ये तीनों मुस्लिम थे, लेकिन कहर टूटा हिन्दुओं पर. 

वही दरगाह कभी आतंकवादियों की पनाहगाह भी रही और वहां आग भी लगाई गई.  वहां से जिहादी नारे भी लगाये गये और वहीं वतनफरोशों की तरबीयत भी हुई. लेकिन नया मामला दरगाह के गेस्ट हाउस के बाहर लगे शिलापट्ट पर उकेरे गये अशोक स्तंभ को तोड़ने का है. यह घटना भी पांच सितंबर यानी ईद-ए-मिलाद के दिन ही हुई. 

भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर के हुकूमती नेता भले ही कह रहे हों कि घाटी में शांति बहाल हो गई है, लेकिन इस घटना ने हकीकत बयां कर दी है. अशोक स्तंभ भारत का प्रतीक चिन्ह है. यह संसद, सर्वोच्च न्यायालय, संविधान, नोट से लेकर आधार कार्ड पर तक अंकित है. इस चिन्ह का अपमान राष्ट्र का अपमान है. लेकिन हजरत बल परिसर में यह राष्ट्रापमान बाकायदा मजमा लगाकर पत्थरों से तोड़कर किया गया. लेकिन समूची सेक्युलर जमात मौन है. इन उन्मादियों को सजा देने की मांग के बदले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि वहां पत्थर लगाने की जरुरत क्या थी और यदि पत्थर लगा तो उस पर अशोक स्तंभ उकेरने की क्या जरूरत है. महबूबा मुफ्ती तो इसे कुफ्र कह रहीं हैं. वह और उनकी जैसी समझवाले कह रहे हैं कि इस्लाम में बुतपरस्ती के लिए कोई जगह नहीं है और अशोक स्तंभ एक बुत है जिसका तोड़ा जाना जरूरी था. 

यह संपत्ति वफ्फ बोर्ड की है और उसकी अध्यक्ष एक महिला हैं. उन्होंने इस कुकृत्य में शामिल उपद्रवियों के खिलाफ एफआईआर करा दिया है. इस घटना में पिटाई से मरते-मरते बचे प्रशासक ने भी गवाही दे दी है. 

खैर, सवाल यह है कि क्या शिलापट्ट पांच सितंबर को ही लगा? नहीं यह पहले ही लग चुका था. फिर से इसे तोड़ने के लिए मुकद्दस तारीख ही क्यों चुनी गई? दूसरा सवाल यह कि यदि किसी को या किसी जमात को अशोक स्तंभ में बुतपरस्ती की बू आ रही थी तो उन्होंने इसकी शिकायत शासन-प्रशासन या वफ्फ बोर्ड से क्यों नहीं की? अगर यह मान भी लिया जाय कि वहां अशोक स्तंभ नहीं लगना चाहिए था तो क्या उसे तोड़ने को जायज ठहराया जा सकता है? सवाल तो यह भी है कि क्या ये जाहिल उन्मादी और इनके समर्थक अशोक स्तंभ वाली करेंसी अपनी जेब में रख कर मस्जिदों तथा इबादतगाहों में नहीं जायेंगे? उस पर गांधी जी भी अंकित हैं. ऐसे में क्या उनकी दुआ कुबूल होंगी? हज यात्रा में मक्का-मदीना की करेंसी रियाद पर भी तो सुल्तान का चित्र अंकित है. क्या उसे जेब में रखकर सजदा नहीं किया जाता है? क्या भारतीय पासपोर्ट पर अंकित अशोक स्तंभ हजयात्रियों के गले में लटके छोटे से बैग में नहीं रहता है? 

दरअसल, कोई भी हिन्दुस्तानी अशोक स्तंभ के बगैर न अपने जीवन की गाड़ी चला सकता है, ना ही मजहबी कर्मकांड पूरा कर सकता है. इस पीड़ादायी घटना के पीछे घाटी में असरदार सियासी जमातों के रहनुमाओं का तो हाथ है हीं, क्योंकि अतिवादी राजनीति की प्रतिस्पर्धा राष्ट्रघात से भी संकोच नहीं करती हैं, पाकिस्तानी एजेंटों की भी मिलीभगत है. 

जो लोग जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने की वकालत करते रहते हैं, उन्हें इस घटना से सतर्क हो जाना चाहिए, अन्यथा 1986-90 तक के दौर की वापसी में देर नहीं लगेगी. अगर यह मामला मजहबी होता तो भी चिंतित करती, हालांकि तब इसके त्वरित समाधान की गुंजाइश बनी रहती, लेकिन यह मामला तेजाबी है. यह एक तरह से भारत की संप्रभुता पर हमला है, राष्ट्र के प्रतीक चिन्ह का निषेध है. इसलिए शांति भंग करने के लिए फुंफकार रहे सपोलों के फन अभी कुचल देने चाहिए और इनके हमदर्द सियासतदानों को भी ठीक से समझा देना चाहिए कि वहां राष्ट्रपति शासन लगाने में देर नहीं लगेगी. धारा 370 की समाप्ति के बाद इनकी हैसियत देश देख चुका है. बात बिगड़ेगी तो बहुत दूर तक जाएगी. दिल्ली में अब वह सरकार नहीं है जो आतंकियों के लिए लाल कालीन बिछाया करती थी. 

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