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प्रश्न हिमालय का नहीं, शिव के भाल का है

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बैजनाथ मिश्र

गंभीर आपराधिक मामलों में महीने भर जेल में रहने वाले मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और प्रधानमंत्री की बर्खास्तगी का प्रस्तावित कानून बेमतलब विवाद की जद में आ गया है. इसके विरोधियों की एक मात्र दलील यह है कि इसका दुरुपयोग होगा. सरकारें अपनी एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल कर अपने विरोधियों को ऐसी धाराओं में जेल भेजवा देंगी जिनमें आसानी से जमानत नहीं मिलेगी. 

यह आशंका गलत नहीं है. लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकारें अब भी लागू कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं कर रही हैं? जांच एजेंसियां और पुलिस अमूमन सरकारों के एजेंट या चपरासी की तरह काम करती हैं. तो क्या सभी आपराधिक कानूनों को निरस्त कर देना चाहिए और पुलिस महकमे से लेकर सभी जांच एजेंसियों के दफ्तरों पर ताला लगा देना चाहिए? संविधान के अनुच्छेद 356 का ही जितना बेशर्म दुरुपयोग सरकारों ने किया है, उसके मद्देनजर इस अनुच्छेद को बनाये रखने का क्या औचित्य है? किसी भी कानून के सदुपयोग या दुरुपयोग का कारण और कारक हमारी कार्यपालिका होती है. आखिर इंदिरा गांधी ने संविधान में उपलब्ध प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए ही तो आपातकाल लगाया था. तो क्या आपातकाल वाले अनुच्छेद विलोपित कर दिये गये? 

ताजा मामला मालेगांव (महाराष्ट्र) कांड का है. इस मामले में सरकार के इशारे पर बेकुसूरों को जेल में ठूंस दिया गया, अमानवीय यातनाएं दी गईं और संघ तथा भाजपा नेताओं को फंसाने की कोशिश की गई. कई साल जेल में रहने और लंबी कानूनी लड़ाई के बाद सभी आरोपी दोषमुक्त हो गये हैं. तो क्या सिर्फ इसी वजह से सभी धाराएं निरस्त कर देनी चाहिए जो उन पर लगाई गई थीं?

सुप्रीम कोर्ट ने ही तो सीबीआई को "पिंजरे में बंद तोता" और "कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन" कहा था. क्या सीबीआई खत्म कर दी गई हैं? ऐसी सैंकड़ों, हजारों नजीरों से आजाद भारत का सियासी इतिहास भरा पड़ा है, लेकिन समय-समय पर न केवल पुराने कानूनों को मजबूत किया गया है, बल्कि नये कानून भी बनाये गये हैं. अलबत्ता पोटा जैसे कानून दुरुपयोग के कारण निरस्त भी हुए हैं. इसलिए प्रस्तावित कानून के दुरुपयोग की आशंका के कारण विरोध नैतिक पतन की पराकाष्ठा है. यह विरोध सिर्फ विरोध के लिए ही है. इसके पीछे कोई तार्किक, वैधानिक या विवेकपूर्ण आधार नहीं है. दरअसल प्रस्तावित कानून से कोई क्रांतिकारी बदलाव की संभावना नहीं है. यह महज एक नैरिटिव है, यह सरकार की एक चाल है जिसमें विपक्ष फंस गया है. 

अच्छा होता कि विपक्ष इस कानून के पक्ष में खड़ा हो जाता और भ्रष्टाचार तथा दूसरे अपराधों के खिलाफ लड़ाई की हांक लगानेवाली सरकार की चाल ही भुस्स कर देता. लेकिन विपक्ष ने शायद यह तय कर लिया है कि सरकार जो भी करेगी, कहेगी, उसका विरोध करना ही उसका दायित्व है और यही उसकी सबसे बड़ी खामी है.  विपक्ष चाहता तो प्रस्तावित कानून का समर्थन करते हुए सरकार को घेर लेता. वह पूछ सकता था कि जेल गये किसी मुख्यमंत्री, मंत्री की बर्खास्तगी के लिए 30 दिन की मोहलत क्यों मिलनी चाहिए? जब सरकारी अधिकारी 48 घंटे जेल में रहने के कारण निलंबित कर दिये जाते हैं तब मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों को 30 दिनों तक जेल से काम करने की इजाजत क्यों मिलनी चाहिए?

इतना ही नहीं विपक्ष चाहता तो इसके घेरे में सांसदों, विधायकों को भी लाने की मांग कर सकता था. जेल यात्री विधायकों, सांसदों की सदस्यता भले ही न जाये, पर उनका वेतन, भत्ता और अपरिभाषित विशेषाधिकार तो निलंबित किया ही जा सकता है. प्रस्तावित कानून में पांच साल या उससे अधिक सजा वाली धाराओं में ही बर्खास्तगी का प्रावधान है. विपक्ष चाहता तो इस पांच साल को दो-तीन साल की सजा वाली धाराओं में भी गिरफ्तारी पर बर्खास्तगी के लिए दबाव डाल सकता था. यदि विपक्ष ऐसा करता तो सरकार के हाथों के तोते उड़ जाते और उसकी हालत "लौट के बुद्धू घर को आये" वाली हो जाती. लेकिन विपक्ष ऐसा तब कर पाता जब उसके पास राजनीतिक-रणनीतिक चातुर्य होता और वह नैतिक साहस की चाशनी में डूबा होता. 

प्रथम दृष्टया तो यही लगता है कि यह कानून अरविंद केजरीवाल, सैंथिल बालाजी (मंत्री तमिलनाडु), मदन मित्रा (मंत्री पश्चिम बंगाल), बंगाल के ही मंत्री फरहद हकीम व सुब्रत मुखर्जी और पार्थ चटर्जी, महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मलिक और दिल्ली के मंत्री रहे मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन जैसे के कारण ही लाया गया है. इनसे पहले जब भी कोई मुख्यमंत्री या मंत्री जेल गया, उसने तुरंत इस्तीफा दे दिया. यहां तक कि लालू प्रसाद और जयललिता ने भी जेल यात्रा से पहले इस्तीफा दिया था. हेमंत सोरेन ने तो बाकायदा राजभवन जाकर इस्तीफा दिया. लेकिन इस धराधाम के सबसे कट्टर ईमानदार और नेतिकता के सुमेरु अरविंद केजरीवाल ने जेल से ही सरकार चलाई. क्रांति की प्रखर ज्वाला ममता बनर्जी ने भी अपने मंत्रियों से इस्तीफा लेना जरुरी नहीं समझा. 

इसी प्रकार तमिल संस्कृति के नये उन्नायक स्टालिन साहब ने भी अपने मंत्री से न इस्तीफा लिया न उन्हें बर्खास्त किया. शरद पवार ने चाणक्य की उपाधि से विभूषित होने के कारण नवाब मलिक को मंत्री पद से हटाना जरुरी नहीं समझा. यह सब इसलिए संभव हो सका क्योंकि कानून, संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि जेल जाने पर मंत्री, मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ेगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी केजरीवाल के मामले में कहा था कि उन्हें हटाने के लिए कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है. सरकार यही प्रावधान करना चाहती है. ऐसा लगता है विपक्ष अपने इन्हीं नेताओं की करतूतों के बोझ के कारण सरकार पर प्रस्तावित कानून को और कड़ा करने के लिए दबाव बनाने के बदले इसके दुरुपयोग की आड़ लेकर विरोध की तलवार भांज रहा है. लेकिन प्रश्न हिमालाय का नहीं शिव के भाल का है, जहां से पापनाशिनी गंगा निकलती है. 

यानी बहस का मुद्दा इस कानून का दुरुपयोग, सदुपयोग नहीं होना चाहिए. बहस इस पर होनी चाहिए कि राजनीतिक शुचिता कैसे स्थापित हो. राजनीति से अपराधियों को दूर कैसे किया जाय. इस पर बहस हो तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों नग्न हो जायेंगे.  गृहमंत्री अमित शाह ने विधेयक पेश करते समय कहा था कि मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और प्रधानमंत्री का आचरण संदेह से परे होना चाहिए, लेकिन क्या सांसदों, विधायकों का आचरण संदेहास्पद हो तो कोई हर्ज नहीं होना चाहिए? दरअसल हमारी राजनीति विपथगामी हो गई है. उसने लोकलाज छोड़ दी है. उसे सत्ता प्राप्ति के लिए घिनौने बदबूदार हथकंडे अपनाने से कोई संकोच नहीं है. सत्ता के लिए कैश, कास्ट और क्रिमिनल ही प्राथमिकता है. ऐसे में दिखावे के लिए या विमर्श के लिए कानून की पेशकश से गटर बन चुकी राजनीति गंगा नहीं बन जाएगी.

हालांकि इसके लिए "हम भारत के लोग" यानी जनता भी जिम्मेदार है. हम क्षुद्रताओं, बाड़ेबंदियों और फौरी प्रलोभनवश अपना पुनीत दायित्व भूल जाते हैं और चोर, लुच्चे, लफंगे, बेईमानों को अपना रहनुमा चुन लेते हैं. हालांकि यह स्थिति क्रमशः बदल तो रही है, उससे एक आश्वस्ति भी मिल रही है, लेकिन बदलाव की यह रफ्तार अभी बहुत धीमी है. बहरहाल प्रस्तावित कानून एक संवैधानिक संशोधन है. इसके पारित होने के लिए दो तिहाई बहुत की आवश्यकता होगी. संसद के दोनों सदनों में सरकार के पास आवश्यक बहुमत नहीं है. देखना है कि यह निहायत मासूम कानून सरकार पास करवा पाती है या नहीं. अगर जोड़-तोड़ से जरुरी बहुमत का जुगाड़ हो गया तो सरकार इतरायेगी और यदि विधेयक गिर गया तो वह ठीकरा विपक्ष पर ही फोड़ेगी और कहेगी कि विपक्ष को भ्रष्टाचारियों से विशेष प्रेम है. 

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