Manish Singh
मोदी की पहली शपथ के साथ अजीत डोवाल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने. मौजूदा सरकार में वे पीएम के बाद सबसे वरिष्ठ चेहरा है. गृह, रक्षा, विदेश मंत्री आते-जाते रहे. पर अजीत डोवाल NSA के पद पर लगातार बने हुए हैं.
वस्तुतः वे सबसे लंबे समय तक NSA रहने वाले शख्स बन चुके हैं. ये पद विदेश, रक्षा और गृह (इंटेलिजेंस/आंतरिक सुरक्षा) के मसलों पर सबसे वरिष्ठ अधिकारी होता है. यानी प्रधानमंत्री की आंख, कान, और दिमाग..
साल 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने यह पद बनाया. प्रोटोकॉल में यह 7वें क्रम और कैबिनेट दर्जे का पद हैं. इतना खास कि NSA के पास गोपनीय परमाणु कोड भी होता है, जो आपात स्थिति में उपयोग किया जा सकता है.
लेकिन डोवाल खासुलखास हैं. वे चीन, पाकिस्तान और इजरायल, रूस आदि के साथ प्रधानमंत्री के विशेष वार्ताकार हैं. कश्मीर में शान्ति हो या चीन के साथ सीमा विवाद.. पहल वही करते दिखे. इतने सक्रिय और प्रभावी हैं कि जयशंकर विदेश मंत्रालय के माउथपीस और राजनाथ रक्षा मंत्रालय के पेपरवेट भर बनकर रह गए हैं.
गृह मंत्रालय में अमित शाह की रुचि तो केवल ED-CBI जैसे महकमों में है. तो मणिपुर से कश्मीर तक आंतरिक सुरक्षा भी डोवाल ही तय करते हैं.
लेकिन बतौर NSA का पहला जॉब इंटेलिजेंस कोऑर्डिनेशन होता है. यहां उनकी इंटेलिजेंस की शानदार सफलता, पेगासस से कुछ भारतीय पत्रकारों, नेताओ, और अपनी ही सरकार के मंत्रियों की जासूसी तक फैली है.
आगे पठानकोट से पुलावामा, पुलवामा से पहलगाम तक सिर्फ इंटेलीजेंस फेलियर की गाथा है. ये पाकिस्तान से जुड़े हमले हैं. और डोवाल पाकिस्तान स्पेशलिस्ट है. किसी जमाने मे वहां स्पाई थे. जिसके मजेदार किस्से वे सावर्जनिक रूप से सुनाते हैं. पर इस स्पेशलिटी की एक्सपायरी डेट NSA बनने के पहले खत्म हो चुकी थी.
खुफिया एजेंसियों को किसी हमले की पूर्वसूचना न मिली. अगर मिली, तो टाला नहीं जा सका. भारत मे आतंकी हमलों के इतिहास में पहली बार असल अपराधी न पहचाने जा सके, न पकड़े न जा सके. वो "बड़े गेम" वाला, एक डीएसपी जरूर पकड़ा गया था. पता नही कहां है आजकल.
मोदी जी ने डोवाल साहब की भरपूर मदद की. नोटबंदी की, ताकि आतंकवाद की कमर टूटे, नहीं टूटी. 370 हटाकर कमर तोड़नी चाही, नहीं टूटी. सर्जिकल स्ट्राइक से कमर तोड़नी चाही, तब भी न टूटी. बालाकोट कर लिया. कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाकर, केंद्र के हाथ मे पुलिस कर ली. नतीजा ?
कश्मीर में पहली बार, पर्यटकों को निशाना बनाया गया. व्याकुल पीएम लालकिले से बोलते दिखे- "धर्म पूछकर मारा. पत्नी के सामने ,पति को मारा." लेकिन डोवाल साहब पिघले नहीं.
झेंप मिटाने को ऑपरेशन सिन्दूर किया था. ऑपरेशन के पहले हमारे इंटेलिजेंस बॉस को पता नही था, कि पाकिस्तान क्या-क्या रिसपॉन्स कर सकता है. उस तरफ कैसी मिसाइलें हमारा इंतजार कर रही है. तो दुश्मन की सरकार को पूर्व सूचना देकर, पूरी मर्दानगी और फ़नफेयर से हमला किया. मिलिट्री ठिकाने न छेड़ने की ताकीद देकर, हमारे पायलट हाथ बांधकर, पाकिस्तानी एयरस्पेस में ठेल दिए. उसके बाद जो हुआ.. बेचारे राजनाथ, संसद में रायता साफ करते रहे.
वे हमारे चीन स्पेशलिस्ट भी है. डोकलाम और गलवान चीन के इरादों को जानने में हम फेल रहे. वार्ताकार के रूप में 11 वे सालो में चीन से कोई कंशेषन प्राप्त कर नही सके. रणनीतिकार के रूप में किसी बड़े फोरम पर चीन को मात न दे सके. एक बार वे रूस में कुर्सी की कोर पर बैठे, पुतिन के सामने यूक्रेन मामले में मोदी के बयान का स्पष्टीकरण देते दिखे. फिर रूस ने हमे सस्ता तेल देना बंद कर दिया.
वे कभी यूरोप में दिखते हैं, कभी इजरायल के मामले में ज्ञान देते हैं. असल विदेश नीति के रचयिता वे हैं, मगर सिन्दूर के बाद, दुनिया के किसी देश ने भारत के पक्ष में न बोला. या पाकिस्तान की खुलकर आलोचना नही की, तो उसकी बदनामी जयशंकर के झोले में गयी.
सीमाओं पर जियो पोलिटिकल रियलिटी यह है कि 2014 में केवल पाकिस्तान आपका दुश्मन था. अब नेपाल, भूटान, बंग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव तक आपसे खार खाकर चीन की गोद मे बैठे हैं. आपकी तालिबान से मित्र वार्ता चल रही है.
घरेलू मोर्चे पर, चीन और पाकिस्तान से लगा हर प्रदेश अशांत है. वहां आम जन में भारत सरकार के प्रति गुस्सा है. सीमा सुरक्षा की दुर्गति यह है कि विदेशी घुसपैठिये, जमीने कब्जा कर रहे, आदिवासी मां बहनों को लूट रहे हैं. हमारी डेमोग्राफी को बदल रहे है. वृद्ध होते पीएम चिंताग्रस्त है. एनएसए डोभाल मस्त हैं.
वैसे खुद डोवाल तब की पैदाइश है जब दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था. वे 1974 में सिक्किम में मौजूद थे, तब शॉन कोनरी जेम्स बांड हुआ करते थे. वे IC-814 में मौजूद थे, तब पियर्स ब्रोसनन जेम्स बॉन्ड होते थे. वे आज भी मौजूद हैं, जब डेनियल क्रेग भी बांडगिरी से सन्यास ले चुके. मगर हमारे देसी जेम्स बॉन्ड का पेट्रोल तो खतमें नई होंदा!
संभवतः चुकते हुए भारतीय नेता को उनमें अपनी छवि दिखती है. बाते बनाकर, ज्ञान देकर, नैरेटिव खड़ा करके, मीडिया की सहायता से, दोनों ही बखूबी, लार्जर डेन लाइफ छवि गढ़ने में माहिर हैं. तो शून्य सफलताओं और बड़े ब्लंडर्स के बावजूद जनता, मोदी जी को मौके पर मौका दे रही है. और वे डोवाल को.
और भी समानता दोनों में दिखती है. धमकी भरी भाषा, स्ट्रांग मिलिटरिज्म और आउट ऑफ वे जाकर चीजें करने की गुस्ताख़ हैबिट. इस पर हिंदुत्व की सोच की कोटिंग है. यह सोच, उन्हें डिप्लोमेसी के नाकाबिल बनाती है, जो IPS होने के नाते उनका कोर एरिया है भी नही.
दरअसल मोदी और डोवाल, हिन्दुस्तान को, हिन्दुओं को, एक हजार साल के शोषण वाले विक्टिम की नजर से देखते हैं. दोनों इसे शक्तिशाली हिन्दू बैस्टन बनाने में लगे हैं. और तब इसमें मुस्लिमो से नफरत, एक इन्हेरेंट फैक्टर बन जाता है. इस नफरत भरी हेकड़ी के शिकार बंग्लादेश और मालदीव हाथ से निकल गए.
सुपिरियरटी कांप्लेक्स भी समस्या है. पड़ोसी देश, जो मित्र है, वहां के लोग, खुलेआम घुसपैठिये कहकर जब पुकारे जाते हैं, तो फिर उस देश का प्रेम तो हम पर उमड़ेगा नही. और हमारी बदकिस्मती, की हमने एक ताकतवर देश बनाकर उनके हाथ दिया. इसका इस्तेमाल, ये दोनों पड़ोसी देशों के मामलों में नाक घुसाने में करने लगे. नेपाल का तो अघोषित आर्थिक ब्लोकेड कर दिया. अब क्या हिन्दू देश, क्या मुस्लिम देश. सब बदला भंजाने की ताक में बैठे हैं.
इनकी फिल्मी स्टाइल भी अनोखी समस्या है. खालिस्तानियों को निपटाने के मामले में अमरीका और कनाडा में हमारी एजेंसियों की जमकर छीछालेदर हुई. कनाडा तो तकरीबन दुश्मन देश मे बदल चुका है.
अब तो चारो ओर, जहां नजर डालो, NSA के हाथों सौंपा गया हर मामला, रायते में बदलकर भारत सरकार में मुखमंडल पर लिपटा हुआ है. और NSA अपनी कुर्सी से लिपटे हुए हैं. जैसे-जैसे उनका कार्यकाल और लंबा बनता जा रहा है, उनकी असफलताओ की मीनार आकाश फोड़, स्ट्रेटोसफीयर में घुसी जा रही है.
एक दिन वे रिटायर हो ही जायेंगे. मगर उसके पहले अपना नाम, भारत के सबसे असफल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में सुरक्षित कर जाएंगे.
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