बेरोजगार युवाओं के अरमानों और सपनों का कब्रगाह बनाने की प्रवृति घातक
Faisal Anurag युवा अरमानों,सपनों और प्रतिभाओं को कब्रगाह बनाने की प्रवृति किसी भी देश के लिए आत्मघाती है. बिहार की सड़कों पर जारी युवाओं का संग्राम कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. शासकों को याद रखना चाहिए कि जब कभी छात्र और युवा सड़कों पर उतरते हैं तो सत्ताएं भी सुरक्षित नहीं रह पाती है. 1967 का वह जमाना याद किया जाना चाहिए.जब फ्रांस की सड़कों पर बिना किसी नेता और नेतृत्व के छात्र,युवा सड़कों पर उतर आए थे और देखते देखते आंदोलन पूरे यूरोप को गिरफ्त में ले लिया था. छात्र रोजगार और नौकरशाही के खिलाफ आंदोलनरत थे.आंदोलन का असर यह हुआ कि फ्रांस के सबसे ताकतवर राष्ट्रपतियों में एक चार्ल्स द गॉल को विदेश भाग जाना पड़ा था. 1973 में गुजरात और फिर अगले ही साल बिहार के छात्र युवा भी रोजागर और हॉस्टल के खाने जैसे सवाल पर ही उठ खड़े हुए थे. जिसकी परिणति इंदिरा गांधी जैसी मजबूत शासक के राजनैतिक पराजय में हुआ. कहने का मतलब यह है कि यदि छात्र,युवा अपने भविष्य की सुरक्षा और बेहतर जिंदगी के लिए एक अदद नौकरी के लिए परेशानहाल हैं तो सत्ता की रातों की नींद हराम हो जानी चाहिए. और जब चुनावी वायदों में करोड़ों रोजगार के जुमले बोलने वाले ही सत्तासीन हैं तो उन्हें युवा शक्ति की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए.यह तो अब लगने ही लगा है कि केंद्र सरकार कमिटी बना कर युवाओं के आक्रोश को कम नहीं कर सकती. युवा तो साफ कह रहे हैं कि वे कमिटियों के खेल से अच्छी तरह वाकिफ हैं,क्योंकि सरकारें केवल चुनाव में हारजीत से डरती हैं. आंदोलनों की उन्हें कोई खास परवाह नहीं रह गयी हैं. भरोसे का यह संकट है. भरोसा टूटा है तो इसके ठोस आधार और कारण हैं. आखिर युवाकाल के ऊर्जाभरे दिनों के इंतजार में कब तक गुजरने दिया जा सकता है.वे दिन न जाने किस अतीत का हिस्सा हो गए हैं,जब आंदोनल करने वालों को बातचीत के लिए तुरंत बुला लिया जाता था. बिहार और यूपी की घटनाओं के बाद तो राजनैतिक स्तर पर तूफान खड़ा हो जाना चाहिए था. लेकिन युवाओं को महसूस हो रहा है कि केवल पांच राज्यों के चुनाव के गुजर जाने तक का इंतजार करते हुए केंद्र सरकार ने एक कमिटी बना दी है. साहित्यकार और राजनैतिककर्मी प्रेम कुमार मणि ने इस संदर्भ में दिलचप टिप्प्णी की है. मणि कहते हैं `` रेलवे के अफसर -मंत्री जो बता रहे थे ,उससे मुल्क के नौजवानों की दशा का चित्र उभर रहा था. करोड़ से ऊपर आवेदन प्राप्त होते हैं . सीट होती हैं कुछ हजार. भर्ती की प्रक्रिया ऐसी की जाती है कि अधिक से अधिक की छंटनी की जा सके. यह तो किसी जुल्म की तरह है . होना तो यह चाहिए कि हर नागरिक को अपनी योग्यतानुसार रोजगार पाने का अवसर मिले. सी और डी ग्रुप की नौकरियों में विलक्षण प्रतिभा की जरुरत नहीं होती. कामचलाऊ लिखने -पढ़ने की योग्यता और लगन काफी है. लेकिन उसके लिए सालों- साल नौजवान परीक्षा देते हैं . एक छोटी सी संख्या नौकरी पाने में किसी तरह सफल होती है और शेष कुंठा लिए तमाम उम्र गुजार देते हैं . केंद्रीय और प्रांतीय हुकूमतों को रोजगार सृजित करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. जिस अर्थव्यवस्था को ये अंगीकार किए हुए हैं ,उसका मुख्य उद्देश्य पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना है . अधिक से अधिक उनकी नजर पूंजीपतियों से मिलने वाले टैक्स पर टिकी होती है. यही कारण है कि केंद्र सरकार पब्लिक सेक्टर के तमाम उद्यमों को एक -एक कर बेच रही है. ऐसे में देश के ये बेरोजगार नौजवान करें तो क्या. सड़कों पर उतर कर उन्होंने अपनी भावनाओं का इज़हार भर किया है.` एक ओर जहां सड़कों पर जारी युवाओं का संग्राम थमने का नाम नहीं ले रहा है, वहीं दूसरी ओर चुनाव वाले राज्यों में हिंदू मुसलमासन के नाम पर वाटरों को ध्रुवीकृत करने के खेल में नेता व्यस्त हैं. पिछले कई सालों से यह रिवाज बन गया है कि धार्मिक उन्माद और संकीर्ण राष्ट्रवाद के नाम पर युवाओं को उनके मुद्दों से भटकाया जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ महीनों से दृश्य बदलते नजर आ रहे हैं. पहले किसानों ने बताया कि वे सिर्फ किसान हैं . हिंदू और मुसलमान के विभाजनकारी राजनीति के शिकार बनने को वे तैयार नहीं हैं. बेरोजगारों ने भी अब इसी तरह की बातें कहना शुरू कर दिया हैं. दर्ज किया जाना चाहिए कि किसी भी भावनात्मक मुद्दे की एक मियाद होती है. बिहार और यूपी के युवा आक्रोश का असर चुनावों पर पड़ना तय है. रोजगार जैसे सवाल को नजरअंदाज करना घातक है. देश में बढ़ती और खतरनाक होती रोजगारहीनता की स्थिति उन आर्थिक नीतियों का ही परिणाम है जो जॉब सृजन के महत्वूपर्ण पहलू को नजरअंदाज करती है. रघुराम राजन हों या अभिजीत बनर्जी जैसे अर्थशास्त्री अगाह करते रहे हैं कि वर्तमान आर्थिक नीति बेरोजगारी बढ़ाने वाली है. यही कारण है कि अब गुस्से से भरे अभ्यार्थी और युवा कह रहे हैं कि दस दिनों तक लगातार ट्वीट किए गए , एक करोड़ ट्वीट हुए लेकिन सरकार ने ध्यान नहीं दिया, फिर मजबूरी में सड़क पर उतरना पड़ा. इस तरह की बेरवाही तभी पैदा होती है जब लोकप्रियता के दंभ और भ्रम में डूबे नेता तमाशा करते रहते हैं. कवि पाश ने ठीक ही तो कहा था सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना, देश का यह सामाजिक और राजनीतिक दायित्व है कि वह अपने युवाओं को सपने की उड़ान भरने का सही माहौल दे. दमन नहीं, भरोसा जीतने का प्रयास करें. [wpse_comments_template]

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