-संकट में सलाह ही नहीं देते, साथ भी देते हैं
Nishikant Thakur
समुद्र में चल रहे जहाज पर सवार यात्री ही किनारे तक पहुंच पाते हैं, जो जहाज के हिलने-डुलने पर घबराकर अपने प्राण बचाने के मकसद से समुद्र में छलांग लगा देते हैं, वे डरपोक चूहे कहलाते हैं. ऐसे में जान बचाने की जद्दोजहद में चूहे तो बीच समुद्र में मर-खप जाते हैं, लेकिन जहाज किसी न किसी तरह किनारे तक पहुंच ही जाता है. कम से कम भारत का इतिहास तो यही बताता है कि मूल धारा से हटकर बहने वाली नदियां सूख जाती हैं.
यही हुआ है कभी कांग्रेस के जहाज पर सवार होकर सत्ता की सैर करने वाले, लेकिन बाद में अपनी ही पार्टी के मुखर विरोधी बन चुके नेताओं के साथ, जिन्होंने स्वार्थ के तहत चलती धारा में चले जा रहे जहाज पर सवार होकर अपने स्वार्थ की पूर्ति करते रहे, लेकिन जिस दिन उन्हें लगा कि अब ब्लैकमेल करने से ही फायदा है, तो कथित आरोपों की बौछार करके मौका मिलते ही जहाज से छलांग लगा दिया था. कुछ तो उस छलांग का लाभ उठाकर सीनाजोरी तक करने लगते हैं, लेकिन कुछ अथाह समुद्र में विलुप्त हो जाते हैं. ऐसे ही कथित नेता कांग्रेस को बदनाम करके अपना उल्लू सीधा करते हैं.
वह अपने नेताओं की बुराई में ही दिन-रात बिताते हैं और कहते हैं अब कांग्रेस खत्म होने जा रही है. हालांकि, कांग्रेस की जड़ें डेड़ सौ वर्ष पुरानी और गहरी है. उसे खत्म करना आज के इन कथित स्वार्थी नेताओं से संभव नहीं है. ऐसा इसलिए, क्योंकि वर्षों तक राज करने वाले अंग्रेजों का भी यही मानना था कि कांग्रेस ही उनके मार्ग का रोड़ा है. इसलिए पहले उसे समाप्त करो, लेकिन कांग्रेस तो खत्म हुई नहीं. हां अंग्रेजों को अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर भारत से रुखसत होना पड़ा.
अब फिर एक बार कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं/पूर्व सांसदों के साथ वर्तमान सांसदों में पार्टी से बाहर जाने की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी है. कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता पार्टी में रहकर अपनी ही पार्टी के विरुद्ध ज्ञान बांच रहे हैं. इनमें से एक पूर्व सांसद राशिद अल्वी ने कहा है कि कांग्रेस जमीन से जुड़े नेताओं को किनारे करने में लगी हुई है. सच यह है कि यदि ऐसे नेता को अपनी पार्टी की इतनी ही फिक्र है, तो निश्चित रूप से उन्हें पार्टी के सामने सारे सबूत रखने चाहिए और इन मुद्दों को पार्टी की आंतरिक बैठक में उठाकर इस बात पर चिंतन करने पर जोर देना चाहिए कि पार्टी कौन सा ऐसा कदम उठाए, जिससे किसी तरह की असमंजस या विवाद की स्थिति पैदा न हो.
इन मुद्दों पर गंभीर चर्चा और विचार-विमर्श होना चाहिए, न कि मात्र सुर्खियों में बने रहने के लिए प्रचार माध्यमों और मीडिया का सहारा लेना चाहिए. यदि आप समझते हैं कि पार्टी को नुकसान पहुंचाया जा रहा है, तो मूल धारा की आलोचना नहीं, बल्कि साहसपूर्वक आगे आकर उसका निदान ढूंढने का प्रयास करना चाहिए. राशिद अल्वी पुराने कांग्रेसी हैं. संभव है कि कांग्रेस की भलाई के लिए ही उन्होंने ऐसा कहा हो, लेकिन आज के माहौल में इसकी गूंज दूर तक जाती है और जनमानस पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है.
सामान्य जनता यह समझने लगती है कि कांग्रेस में तोड़फोड़ शुरू हो गई है और उसका अंत निकट है. आज तो यही दिखाई दे रहा है कि जो कांग्रेस पर आरोप लगाकर बाहर, यानी किसी अन्य पार्टी में चले गए, उनका नामलेवा भी देश में ढूंढने से नहीं मिलते हैं. साक्षात उदाहरण तो गुलाम नबी आजाद ही हैं, जिनकी चर्चा तक आज कोई नहीं करता.
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से एक शशि थरूर, जो कांग्रेस में अध्यक्ष बनने के लिए प्रत्यनशील रहे हैं, वह भी आज अब पार्टी में अपनी भूमिका पर सवाल उठा रहे हैं. उन्हें ऐसा लग रहा है कि पार्टी उनकी ‘योग्यता और अनुभव’ की उपेक्षा कर रही है. कभी-कभी तो सच में ऐसा लगने लगता है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल में शामिल होने के संबंध में उनकी ‘डील’ पक्की हो गई है और इसलिए वे धीरे-धीरे पार्टी पर आरोप लगाकर अपने को अलग करना चाह रहे हैं. वैसे, कांग्रेस के कई ‘स्थायी’ नेताओं का कहना है के सत्तारूढ़ दल में जिनकी जगह बन जाती है या बन जाने की उम्मीद होती है, वह इसी प्रकार आरोप-प्रत्यारोप लगाकर खुद के दामन को पाक-साफ करने लगते हैं.
वैसे श्री थरूर ने इसका खंडन कर दिया है, लेकिन बात तो बहुत दूर तक पहुंच गई है. ऐसे उदाहरण में ज्योतिरादित्य सिंधिया को ही देख लीजिए, जिन्हें राजनीतिक प्लेटफार्म पर आगे बढ़ाने में कांग्रेस ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, जिन्हें गांधी परिवार का सबसे करीबी माना जाता था, वह भी स्वार्थ सिद्धि के लिए कांग्रेस को छोड़कर सत्तारूढ़ दल के शरणागत हो गए. इतना ही नहीं, बल्कि विश्वासघात की हद देखिए कि भाजपा की सरकार बनाने के मकसद से उन्होंने मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार तक को गिरा दिया.
इसे क्या कहा जा सकता है? सत्ता के लिए लालायित रहना और यह सोचना कि विपक्ष में बैठने का क्या मतलब, इसलिए पार्टी बदलो और राज सुख भोगो। ऐसा अब इसलिए भी कहा जाता है, क्योंकि नेताओं की सोच से यह स्पष्ट होने लगा है कि नेतागीरी तो महज एक पेशा है, स्वहित के लिए भी कुछ करो. वैसे स्व. अटल बिहारी वाजपेयी कहते थे कि ‘सरकार तो आएंगी-जाएंगी….’ लेकिन, आज इस तरह की ईमानदार राजनीति कहां हो रही है? यहीं वजह है कि भारतीय समाज आज भी वाजपेयी को राजनीतिक शुचिता के झंडाबरदार के तौर ही देखती है, लेकिन क्या वह गुण आज के किसी नेता में है!
अब एक नजर वर्तमान सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक स्थिति पर. इस प्रसंग में यही कहना सही होगा कि सत्तारूढ़ दल अनुशासित दल है, इसलिए जनता उसे बार-बार अवसर दे रही है. उसके कई कारणों में एक कारण यह भी है कि समाज के बीच किसी न किसी प्रकार उसकी जमीन तैयार करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगा रहता है और समाज में उसकी छाप एक विशिष्ट पार्टी के रूप में बना दिया है. वैसे, हर जगह सत्तारूढ़ सरकार की कमियां ही गिनाई जाती रही हैं, लेकिन जो अपने वाक्य विन्यास और अपनी बातों से जनमानस को आकर्षित कर ले, वह चाहे कितने ही झूठे वादा करे, डंके की चोट पर और पूरे आत्मविश्वास से झूठ को सच साबित करने का प्रयास करे, समाज सबकुछ जानकर भी ऐसे ही नेताओं को सत्ता पर बैठा देती है.
यही कारण है कि आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतनी आलोचनाओं के बावजूद निर्वाचित हो जाते हैं. तभी तो कहा जाने लगा है कि आज की तारीख में मोदी से बड़ा और कद्दावर नेता देश में कोई नहीं है. सच या झूठ का पता तो तभी चलेगा, जब सत्ता परिवर्तन हो और दूसरे दल को अवसर दिया जाए. वैसे, देश में आज एक से एक काबिल नेता समाज में हैं, लेकिन दुर्भाग्य कि उन्हें उभरने का ऐसा मौका नहीं मिला है कि वह अपनी काबिलियत समाज के बीच उजागर कर सके. वैसे, उनकी ओर से भी कोई ऐसा प्रयास नहीं किया जाता है या कहिए कि अवसर नहीं मिल पाता है कि वह सार्वजनिक जीवन में जनहित और देशहित के मुद्दों को प्रभावी तरीके से रख सकें.
बात शुरू हुई थी कांग्रेस के अंतर्कलह को लेकर. उस मुद्दे को तो कांग्रेस अपने साथियों के साथ बैठक करके ही निपटा सकती है. हालांकि, कांग्रेस में ऐसे झंझावात आते ही रहे हैं और हर बार गिरकर वह संभलती भी रही है. क्योंकि, आज भी कांग्रेस का अर्थ उन्हीं महापुरुषों का माना जाता है, जिन्होंने इस देश की आजादी के लिए वर्षों विदेशी आक्रांताओं से लड़ते रहे. उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं था, बल्कि उन महामानवों ने अपनी अगली पीढ़ी को एक स्वतंत्र राष्ट्र का नागरिक बनाना चाहते थे.
उनके लिए उन्होंने बेशक ढेरों कुर्बानियां दीं और जहां का समाज विश्व में उपेक्षित और अपमानित था, उसे रास्ते पर लाने का हरसंभव प्रयास किया. उसी प्रयास का फल आज देश की जनता चख रही है. यदि उन्होंने नींव कमजोर बनाई होती, तो आज जो विकास की जगमगाहट चारों ओर दिख रही है, उसे आज की पीढ़ी नहीं देख पाती. सच यह भी है कि विकास के बाद ही समाज को अपनी अन्य आवश्यकताएं नजर आती हैं, जिन्हें पूरा करने का दबाव वह सरकार पर बनाता है.
आवश्यकताएं अनंत हैं, जिसका अंत जब हम स्वयं नहीं कर पा रहे हैं, तो डेढ अरब आबादी की तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति भला सरकार कहां तक कर पाएगी? जो नेता यह सोचते हैं कि विपक्ष में बैठकर हम समाज के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं, तो उन्हें पीछे पलटकर डॉ. राम मनोहर लोहिया को याद करना चाहिए. यदि हम हमेशा छाती पीटते हुए अपने को कोसते रहेंगे और आज इधर और कल उधर दल-बदल करते रहेंगे तो फिर देश का क्या होगा?
डिस्क्लेमर : लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं, ये इनके निजी विचार हैं.