पार्टियों की अमीरी बढ़ते कॉरपोरेट वर्चस्व का संकेत
Faisal Anurag पार्टियों की अमीरी की कथा बताती है कि किस तरह कॉरपोरेट घरानों ने उन्हें नियंत्रित कर रखा है. हालांकि लोकतंत्र में बात तो प्लेइंग लेबल फील्ड की होती है, लेकिन सरकार में बैठे किसी दल से छोटे या लंबे समय से सत्ता से बाहर रही पार्टियों का मुकाबला करना निरंतर मुश्किल होता जा रहा है. यह हकीकत केवल भारत की ही नहीं है. अमेरिका जैसे देश में भी राजनैतिक चंदे ही तय करते हैं कि कौन प्रत्याशी कितना ताकतवर है और वह वोटरों को प्रभावित करने के लिए कितनी धनराशि खर्च कर सकता है. भारत के राजनैतिक हालात भी अब बताते हैं कि चुनाव प्रचार किस तरह कॉरपोरेट पर निर्भर हो गया है. राजनैतिक दलों की आर्थिक विषमता ठीक वैसी ही हो गयी है जैसा कि आक्सफेम की ताजा रिपार्ट ने भारत के लोगों के बीच की गैरबराबरी को लेकर जारी किया है. चुनाव सुधारों के पैराकार संस्था एडीआर की ताजा रिपोर्ट बताती है कि केंद्र में आठ सालों से सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी ने तमाम अन्य राजनैतिक दलों को चंदे के मामले में पीछे छोड़ दिया है. एडीआर के अनुसार भाजपा ने वित्त वर्ष 2019-20 में 4,847.78 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की है, जो अन्य सभी दलों की तुलना में बहुत ज्यादा है. दूसरे नंबर पर बाद बहुजन समाज पार्टी है जिसके पास 698.33 करोड़ रुपये की संपत्ति है. 60 सालों तक केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस तीसरे स्थान पर है जिसके पास भाजपा की तुलना में पांच गुना कम 588.16 करोड़ रुपये की संपत्ति की है. अन्य क्षेत्रीय दल तो इन तीनों से मुकाबला करने की स्थिति में ही नहीं है. द एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एडीआर ने 2019-20 में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की संपत्ति और देनदारियों के अपने विश्लेषण के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है. यह रिपार्ट राजनैतिक दलों के बीच के उस अंतर को बताती है जिससे चुनावों को प्रभावित करना या फिर प्रचारयुद्ध में बेशुमार धन बहाना असान हो जाता है. 2019-20 के वित्त वर्ष में कुल सात राष्ट्रीय और 44 क्षेत्रीय दलों द्वारा घोषित कुल संपत्ति क्रमशः 6,988.57 करोड़ रुपये और 2,129.38 करोड़ रुपये थी. इस हालात में राजनैतिक मुकाबले के समान जमीन की कल्पना कितनी मुश्किल हो गयी है, समझा जा सकता है कि एडीआर के अनुसार “क्षेत्रीय दलों ने वित्त वर्ष 2019-20 में उधार के तहत 30.29 करोड़ रुपये और अन्य देनदारियों के तहत 30.37 करोड़ रुपये की घोषणा की, जिसमें टीडीपी ने 30.342 करोड़ रुपये (50.02 प्रतिशत) की अधिकतम कुल देनदारियों की घोषणा की, इसके बाद डीएमके ने 8.05 करोड़ रुपये (13.27 प्रतिशत) की देनदारी की घोषणा की.” पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कोविड प्रतिबंधों के कारण डिजिटल प्रचार की छूट ने तो छोटे दलों को एक तरह से चुनाव के पहले ही मैदान से बाहर कर दिया है. जब से राजनैतिक दलों के चंदे का तरीका बदला गया है. उसकी गोपनीयता बनाए रखने का प्रावधान किया गया है, न तो चंदे का स्रोत पता है और न ही उन स्रातों के आर्थिक हितों के बारे में सार्वजनिक तौर पर कुछ भी ज्ञात है.गोपनीयता के कारण यह जाना असंभव है कि चंदा देने वालों की आर्थिक हितों का राजनैतिक दल कितना ख्याल रखते हैं. यह तो सर्वविदित है कि देश की आर्थिक नीतियां तेजी से बदली जा रही हैं और इसका लाभ चंद बड़े घरानों के ही मिल रहा है. राजनैतिक चंदे और नीतियों के सुधार के बीच के सरोकार की चर्चा तो होती है, लेकिन उसके प्रमाण के तमाम रास्ते बंद रखे गए हैं. पूंजीवादी व्यवस्था के असाध्य ढांचागत संकट और उससे जनित भीषण त्रासदी के बीच इसी व्यवस्था के भीतर पूंजीपति वर्ग और मुनाफा आधारित व्यवस्था ने "सार्विक मताधिकार" की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के समाने विकट संकट पैदा कर दिया है. दो साल पहले प्रकाशित एक विश्व भर में चर्चित पुस्तक How to Lose a Constitutional Democracy ने फोकस किया है कि वर्तमान चंदे की असमानता लोकतांत्रिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा करती है. दुनिया भर में राजनैतिक दलों को कमल वाले कारपारेट चंदों को लेकर चिंता व्यक्त की जाती रही है और चुनावी जनतंत्र के एकाधिकारवादी तानाशाही के बतौर क्रियाशील होने का तर्क दिया जाता रहा है. जब आमलोगों की जिंदगी में भी आर्थिक असमानता चरम पर हो तो यह खतरा और बढ़ जाता है. Oxfam की ताज़ा रिपोर्ट में भारत में गरीबी और गैरबराबरी के जो भयावह आंकड़े सामने आए हैं, वे स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था की आरक्षणीयता को चीख़ चीख़ कर बयान कर रहे हैं. चुनावी चंदों और राजनैतितिक दलों की संपत्ति की विषमता का इससे गहरा रिश्ता है. [wpse_comments_template]

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