Faisal Anurag
कोरोना से होने वाली मौतों में ज्यादातर को बचाया जा सकता था. महामारी का मुकाबला करने की यदि ठोस रणनीति होती तो अनेक घरों में मातमी सन्नटा नहीं पसरता. ज्यादातर लोग तो आक्सीजन, बेड, रेमडिसिविर के अभाव में दम तोड़ने के लिए बाध्य किए गए. जनसंहार के अनेक रूप हैं. उसमें एक आपदा से निपटने की नाकामयाबी भी है.
1943-44 में बंगाल को एक ऐसा ही जनसंहार माना गया था. एक विदेशी पत्रकार ने उस अकाल में भूख से हुई 30 लाख से ज्यादा मौतों के लिए ब्रिटेन की महारानी की सरकार को दोषी बताया था. इयान स्टीफन की रिपोर्टों ने दुनिया में हलचल मचा दी थी. जिसमें बंगाल के अकाल को ब्रिटेन का प्रायोजन बताया गया था. विस्टन चर्चिल तक सिहर उठे थे. वह दूसरे विश्वयुद्ध का दौर था. भारत अपनी आजादी के लिए लड़ रहा था.
इथियोपिया और सेनेगल जैसे अफ्रीकी देशों में साम्राज्यवादी ताकतों के जनसंहार ने लाखों की जान ली. दुनिया 21वीं सदी में भी देख रही है कि स्वास्थ्य सेवाएं कितनी लाचार हैं. अमेरिका में ट्रंप और ब्राजील के बोलसोनारों को लेकर भी उन देशों में यही कहा गया कि महामारी से निपटने के लिए उनकी कोई योजना ही नहीं थी. अमेरिका में कोविड के कारण 5 लाख से ज्यादा मौतें दर्ज की गयी हैं और ब्राजील में यह आंकड़ा 3 लाख 69 हजार से ज्यादा है. भारत भी 1 लाख 75 हजार का आंकड़ा पार हो चुका है. चौथे नंबर पर ब्रिटेन है जहां 1 लाख 27 हजार लोगों की मौत हुई है. भारत के पड़ोसी देशों में पाकिस्तान में 16 हजार से कुछ ही ज्यादा लोगों की जान गई है. जबकि बांग्लादेश में 10 हजार 182 मौतें दर्ज की गयी हैं. दुनिया जानती है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश की स्वास्थ्य सेवा भारत की तुलना में बेहद खराब है.
सवाल उठता है कि जब ब्रिटेन और अमेरिका दूसरी लहर के शिकार हो रहे थे, तब भारत उससे क्या सबक सीख रहा था. भारत तब बंगाल सहित पांच राज्यों के चुनाव की तैयारियों में व्यस्त था और नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए बंगाल जीतना ज्यादा महत्वपूर्ण बन गया. अब तो हर कोई मान रहा है कि मातमों के इस भयावह दौर के लिए आमलोग को ही जबावदेह नहीं बताया जा सकता है. केंद्र और राज्य सरकारों को दायित्व मुक्त नहीं किया जा सकता. केवल और केवल प्रचार अभियान से किसी भी महामारी का मुकाबला नहीं किया जा सकता. उसके लिए जमीन पर ठोस काम करने की जरूरत है. जहां तक संसाधन की बात है, उसकी कमी नहीं है. लेकिन पिछले एक साल में एक भी अस्पताल देश के किसी भी हिस्से में केवल कोविड के लिए नहीं खोले गये. भारत की आबादी के हिसाब से वेंटिलेटर, ऑक्सीजन या जीवनरक्षक दवाइयों का भी इंतजाम नहीं किया गया.
अब बचाव में यह कहा जा रहा है दूसरी लहर बहुत तेजी से आयी है. इसका अनुमान करने में चूक गए. लेकिन यह बेहद लचर तर्क है. यदि यूरोप, अमेरिका की दूसरी लहर का थोड़ा भी आकलन किया गया होता तो कम से कम ये हालात तो नहीं ही पैदा होते. अब तो विशेषज्ञ भी कहने लगे हैं कि दूसरी लहर रोकी तो नहीं जा सकती थी, लेकिन नुकसान को कम किया जा सकता है. कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तो आत्मस्वीकृति की है कि इस तबाही के लिए हम सब भी जिम्मेदार हैं. लेकिन किसी भी राज्य या केंद्र की सरकार को यह अहसास नहीं है. दरअसल भारत एक ऐसा उत्सवप्रेमी देश में बदला जा रहा है, जहां मौतों का भी जश्न हो सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 अप्रैल से 14 अप्रैल तक वैक्सीन उत्सव मनाने का एलान किया था. लेकिन कोविड के प्रति सरकार की गंभीरता का आंकलन इसी से किया जा सकता है कि इसी दौरान सबसे कम वैक्सीन लगाई गई. इन चार दिनों (11-14 अप्रैल) में कुल 1.28 करोड़ टीका लगाया गया, जबकि इससे पहले चार दिनों यानी कि सात से 10 अप्रैल के बीच कुल 1.45 करोड़ टीका लगाया गया था. दूसरी ओर टीका उत्सव के दौरान 12 अप्रैल को 40.04 लाख से अधिक, 13 अप्रैल को काफी कम (33 प्रतिशत गिरावट) 26.46 लाख से अधिक और 14 अप्रैल को 33.13 लाख से अधिक टीके लगाये गये थे. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि ‘टीका उत्सव’ के दौरान लगाए गए टीकों की संख्या पहले की तुलना में काफी कम है. इससे भी जाहिर होता है कि दूसरी लहर आने के बावजूद सरकारी महकमा क्या कर रहा था. यही नहीं, मौतों के आंकड़े जिस तरह छुपाए जा रहे हैं, उससे भी जाहिर होता है कि नकामी छुपाने में ही ज्यादा सक्रियता है. गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में प्रतिस्पर्धा है कि मौतों के आंकड़ो को किस तरह कम कर दिखाया जाए. इन राज्यों के अलावे दूसरे राज्य भी इसी प्रवृत्ति के शिकार हैं. लेकिन श्मशान और कब्रिस्तान के आंकड़े सरकारी दावों की पोल खोलते हैं. वाराणसी, भोपाल, सूरत जैसे शहरों से यह रिपोर्ट आ रही है कि सरकारी के दावों से ज्यादा शव जलाये गए हैं.
इसी तबाही के बीच चुनाव आयोग के इस फैसले कि बंगाल में सात बजे शाम से सुबह सात बजे तक चुनाव प्रचार पर रोक रहेगी, सोशल मीडिया पर एक क्रूर मजाक बताया जा रहा है. चुनाव आयोग ने तो भाजपा को छोड़ कर शेष सभी राजनीतिक दलों के इस प्रस्ताव को भी नहीं माना कि बाकी के चार चरणों के चुनाव एक ही दिन करा लिए जाएं. चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है. जैसा कि प्रधानमंत्री ने ट्वीट में कहा है और वोटरों से पूरे जोश और उत्साह के साथ वोट करने की अपील की है. काश, बर्बादी और तबाही के इस दौर में मृत परिवारों के लिए कोई राहत या उनके दुख को कम करने का भी कोई उपाय किया जाता.