बैजनाथ मिश्र
चीन के तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का सफल सम्मेलन संपन्न हो गया है. इस सम्मेलन में हाथी, ड्रैगन और भालू यानी भारत, चीन और रुस की जुगलबंदी छायी रही. तीनों देशों के शीर्ष नेताओं मोदी-जिनपिंग-पुतिन ने औपचारिक तथा अनौपचारिक बातचीत में एक-दूसरे से आपसी सहयोग और संबंध प्रगाढ़ करने पर बल दिया. यह सम्मेलन ऐसे समय में संपन्न हुआ है जब डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ टेरर और धमकियों से विश्व समुदाय का एक बड़ा हिस्सा खिन्न है. इस सम्मेलन को टैरिफ टेरर के विरूद्ध शक्ति प्रदर्शन माना जा रहा है.
हाल ही में अलास्का में संपन्न हुई ट्रंप-पुतिन की बैठक यूक्रेन मसले पर बेनतीजा रही. लेकिन नरेंद्र मोदी ने यूक्रेन में युद्ध समाप्ति का मुद्दा उठाकर अपना इरादा साफ कर दिया है और रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने भारत के प्रयासों और इच्छाओं का समर्थन भी कर दिया.
अलबत्ता भारत-चीन सीमा विवाद सुलझाने की दिशा में कोई कारगर पहल नहीं हो पाई. जिनपिंग ने कहा कि सीमा विवाद भूलकर हमें आपसी रिश्ते मजबूत करने चाहिए. लेकिन भारत के विदेश मंत्रालय ने साफ कर दिया कि सीमा विवाद जारी रहने के कारण आपसी रिश्ते कभी भी हिचकोले खा सकते हैं. बावजूद इसके ऐसा लग रहा है कि इस सम्मेलन से विश्व पटल पर नये समीकरण बनेंगे और अमेरिका के साथ-साथ यूरोपीय देशों पर दबाव बढ़ेगा.
चीन अमेरिका के वैश्विक नेतृत्व की भूमिका को चुनौती देने के मूड में है. इसके लिए उसे भारत का अटूट सहयोग चाहिए. अमेरिका चीन की मंशा से वाकिफ है. इसलिए उसने क्वाड में भारत को रखा है ताकि चीन की चाल भुस्स की जा सके. लेकिन भारत-अमेरिका तनाव के कारण क्वाड अपनी प्रासंगिकता खो सकता है. यदि ऐसे हुआ तो अमेरिका को भारी चपत लगेगी. भारत के लिए चुनौती ग्लोबल साउथ का प्रभुत्व बरकरार रखना होगी, क्योंकि इस समूह की सरदारी अभी भारत कर रहा है.
यदि भारत अपने मोहरे ठीक से चल सका तो एक ध्रुवीय या दो ध्रुवीय के बदले बहु ध्रुवीय विश्व की परिकल्पना आकार ले सकती है. इसके लिए जरुरी है कि हमें अमेरिका से उतावलेपन में आक्रामक भाषा में बात नहीं करनी चाहिए. हमें उसके जवाब में जो कुछ करना-कहना है तो संयमित ढ़ंग से गंभीरता पूर्वक करना-कहना चाहिए. यह एक मान्य सिद्धांत है कि राजनीति और कूटनीति में दोस्ती-दुश्मनी हथियार के रुप में इस्तेमाल की जाती है और जिसकी धार ज्यादा तेज होती है और जिसकी फौरी जरूरत आन पड़ती है उसका इस्तेमाल पहले कर लिया जाता है. यानी हमें चालबाज चीन से सतर्क रहना चाहिए.
अभी प्रेम की पींगे बढ़ा रहा चीन कब दुलत्ती मारने लगे, कहना मुश्किल है. ठीक ही कहा गया है कि यह नये जमाने का शहर है जरा फासले से मिला करो. हमारी प्राथमिकता थी अमेरिका को टेंशन देना और वह काम हो गया है. आगे क्या होगा, यह अमेरिका और चीन की चाल पर निर्भर करेगा.
यह सही है कि अमेरिका ने अहंकारी मुद्रा ओढ़कर भारत को अलग-थलग करने की कोशिश की है. वह भूल गया है कि भारत-अमेरिकी रिश्ते लगभग तीस साल में जवान हुए हैं. विश्व समुदाय में भारत की धाक है और धमक भी. अमेरिका ने हमें एक अवसर दिया है. ट्रंप ने तो तीन दशक की अमेरिकी कूटनीति विफल कर दी है. क्या हमें भी एससीओ समिट की सफलता से इतराते हुए टेढ़ी चाल चलनी चाहिए? नहीं, कादपि नहीं. याद कीजिए, अटल जी के परमाणु परीक्षण का समय. अमेरिका ने हम पर कितनी पाबंदियां लगाई थी. फिर भी हम डिगे नहीं. आज तो हम बेहद मजबूत हैं.
भारत को पूरी दुनिया चाहती है और हम तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था भी हैं. भारत के बिना कोई विश्व ध्रुव नहीं बन सकता है. यह संभव हुआ है हमारी आर्थिक वृद्धि और सटीक कूटनीतिक चाल से. एससीओ समिट से भी यह साफ हो गया है कि भारत किसी का पिछलग्गू नहीं है. हम खुद एजेंडा सेट करते हैं और दूसरों को उसे अपनाने के लिए मजबूर करने की स्थिति में हैं. भारत अब तनाव में भी अवसर तलाशने की कला में पारंगत हो रहा है. हमारे इस हुनर से ट्रंप भी शीघ्र अवगत हो जायेंगे और अपनी गलतियां सुधारने के लिए विवश हो जायेंगे. लेकिन तब तक हमें धैर्य और संयम से काम लेना होगा.
अमेरिका से मोहभंग होने के बावजूद भारत अमेरिका पर धावा बोलने की हैसियत में नहीं है. अलबत्ता भारत अमेरिकी मंशा के विरुद्ध कह चुका है कि वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र को कुछ देशों की रणनीति या क्लब के रुप में नहीं देखता है, न वह क्वाड को सैन्य संगठन में बदलने का पक्षधर है और ना ही वह इसे किसी देश को निशाना बनाने के साधन के रुप में देखता है. पहले चीन को लगता था कि भारत की ये बातें हाथी के दिखाने वाले दांत की तरह है, लेकिन ट्रंप के टैरिफ हमले के बाद वह भी समझ गया है कि वह भारत की कूटनीति नहीं समझ पाया और उसे अमेरिकी पाले में डालकर व्यवहार करने लगा था. मोदी चीन की समझ या फितरत से वाकिफ हैं. इसलिए उन्होंने चीन जाने से पहले जापान जाना और उसे पटाना आवश्यक समझा ताकि चीन किसी मुगालते में न रहे.
क्या मोदी नहीं जानते हैं कि पहलगाम में पर्यटकों पर हमला करने वाले आतंकी आपसी संपर्क के लिए चीनी एपों का उपयोग कर रहे थे? यह भी कि क्या चीन ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान अपनी उपग्रह सूचना प्रणाली से पाकिस्तान की मदद नहीं की थी? बावजूद इसके भारत "दिल मिले ना मिले हाथ मिलाते रहिए" की तर्ज पर चल रहा है. भारत इनकार-इकरार-तकरार और दरकार की बारीकियां समझता है और विश्व राजनय की रपटीली-खुटचाली राहों को अपने लिए एक्सप्रेस वे बनाने के लिए मनोयोग से लगा है. मोदी जापान को शायद यह भरोसा दे आये हैं कि चीन की बढ़ती महत्वकांक्षा के दौर में यदि अमेरिका उसका रक्षा कवच बनने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है तो भारत उसके साथ खड़ा रहेगा. जापान-भारत के रिश्ते पिछले एक दशक में बेहद मजबूत हुए हैं. यानी भारत अपने लिए नयी संभावनाएं तलाश रहा है.
एससीओ सम्मेलन में बतौर सदस्य पाकिस्तान भी पहुंचा था. लेकिन उसके प्रधानमंत्री को किसी ने घास नहीं डाली. शहबाज शरीफ की मौजूदगी में पहलगांव हमले के विरूद्ध प्रस्ताव पास हो गया. शहबाज टुकुर-टुकुर निहारता रह गया और उसकी मदद कर रहा चीन भी कुछ नहीं कर पाया. दरअसल पाकिस्तान की सुरक्षा और सेहत का ख्याल अमेरिका और पश्चिमी देश करते हैं. वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ से आर्थिक सहयोग दिलवाकर. चीन किसी की भी मदद फोकट में नहीं करता है. वह पाकिस्तान को कर्ज देता है और बदले में उसकी जमीन, पोर्ट और खनिज भंडार हड़पता है. इस सम्मेलन में लिये गये फैसलों ने पाक चीन के इस लेन-देन वाले रिश्ते में खलल डाल दिया है. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम अपनी खुशी में थिरकने लगें. अभी आगे बहुत कुछ होना है. हां, इतना जरुर है कि आगाज अच्छा है और यदि अमेरिका ने हठधर्मिता नहीं छोड़ी तो अंजाम भी ठीक ही होगा. अलबत्ता इसमें समय लगेगा. हमें सतर्क निगाहों और सधी चाल के साथ इंतजार करना पड़ेगा.
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