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ओल्ड गार्ड से झामुमो की मुक्ति का वक्त

Shyam Kishore Choubey कोल्हान टाइगर कहे जाने वाले झारखंड के जल संसाधन व उच्च शिक्षा मंत्री, 02 फरवरी-03 जुलाई के बीच के मुख्यमंत्री और झामुमो उपाध्यक्ष 67 वर्षीय चम्पाई सोरेन ने चार-पांच दिनों के सस्पेंस के बाद अपने पत्ते खोल दिये हैं. उन्होंने अलग दल बनाने और मौका लगने पर किसी साथी संग नया भविष्य गढ़ने का ऐलान 21 अगस्त को कर दिया. उनका यह ऐलान अंजाम पा जाए तो झामुमो के लिए ओल्ड गार्ड से मुक्ति का यह सही समय होगा. झामुमो 50 साल तक शिबू सोरेन की छत्रछाया में परवान चढ़ता रहा. शिबू बुढ़ापा और बीमारियों से परेशान हैं, जबकि चम्पाई ने अलग रास्ता अपनाने की घोषणा कर दी है. ऐसे में हेमंत सोरेन पर अब सारी जवाबदेही आ गई है. दो संसदीय और 14 विधानसभा सीटों वाले तीन जिलों के कोल्हान में 29 साल से चम्पाई झामुमो के सच्चे सिपाही बने रहे. निर्मल महतो, देवेंद्र मांझी के बाद कोल्हान में शिबू सोरेन के वे सिपहसालार बन गये. वही चम्पाई अब बगावत पर आमादा हैं. सरायकेला विधानसभा क्षेत्र में मामूली अंतर से जीत दर्ज करते रहे चम्पाई कितनी बड़ी शख्सियत बन पाएंगे, यह कुछ ही महीनों में होनेवाले चुनाव में पता चल जाएगा. असल सवाल यह है कि वे झामुमो को कितना नुकसान पहुंचा पाएंगे? कभी कोल्हान क्षेत्र में शिबू के पक्के साथी रहे कृष्णा मार्डी हों कि झामुमो में नंबर दो की हैसियत वाले सूरज मंडल, अपना-अपना दल बनाकर राजनीति की धारा में टिक नहीं सके. ऐसे ही, जो नेता झामुमो से अलग हुए, उनमें अर्जुन मुंडा, विद्युत वरण महतो और कुछ हद तक शैलेंद्र महतो ही अपनी पहचान बना पाए, बाकी या तो हाशिये पर चले गये या उनको झामुमो के शरणागत होना पड़ा. एक मामले में 31 जनवरी को झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की ईडी द्वारा गिरफ्तारी के बाद चम्पाई मुख्यमंत्री बनाये गये थे. 28 जून को हेमंत को बेल मिली और 04 जुलाई को वे दोबारा मुख्यमंत्री बनाये गये. क्या उनको चम्पाई पर कुछ शक हुआ था? बकौल चम्पाई बीच के छह दिन उनके तिरस्कार के थे. इसके बावजूद उन्होंने मंत्री पद ज्वाइन किया. इस बीच उनको झामुमो से निष्कासित और विधायकी छिने लोबिन हेम्ब्रम का साथ मिला. 17 अगस्त को चम्पाई के सरकारी आवास पर लोबिन से लंबी गूफ्तगू हुई. उसी दिन चम्पाई बरास्ता अपने गांव जिलिंगगोड़ा, कोलकाता चले गये. अगली सुबह वे दिल्ली में थे. इस बीच हवा उड़ी कि वे भाजपा ज्वाइन करेंगे. 04 जुलाई के बाद से ही भाजपा उनके गुणगान में लगी हुई थी. यहां तक कि अपने तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा और रघुवर दास की परवाह किये बिना यह भी कहा कि 24 वर्षों में चम्पाई का पांच महीने का कार्यकाल बेहतर रहा. इसलिए यह कयासबाजी गलत नहीं थी कि चम्पाई भाजपा की संगति गह रहे हैं. 18 अगस्त को दिल्ली पहुंचते ही उन्होंने एक्स हैंडल पर लंबा भावनात्मक पोस्ट डाला, जिसमें अपने तिरस्कार सहित कई बातें लिखी. यह भी लिखा कि उनके सामने तीन ही विकल्प हैं, राजनीति से संन्यास लेना, अलग संगठन बनाना या किसी अच्छे साथी के साथ हो लेना. 20 की रात वाया कोलकाता वे जिलिंगगोड़ा लौटे और अगले दिन नया संगठन बनाने का ऐलान कर यह संकेत भी दिया कि किसी साथी का साथ गहेंगे. जाहिरा तौर पर वह साथी भाजपा ही हो सकती है. इसी कारण उनको झारखंड का जीतनराम मांझी कहा जा रहा है लेकिन वे कितने प्रभावी होंगे, यह वक्त बतायेगा. इतिहास पर एक नजर. जनता दल से निकलकर राजद, जदयू, लोजपा, रालोसमो, हम जैसे दल बने. इन सभी के नेताओं का अपना-अपना सामाजिक-जातीय आधार है. जिसका जितना बड़ा आधार, वह उतनी मजबूती से खड़ा हुआ. उत्तरप्रदेश के बसपा, रालोद, अपना दल, सुभासपा, राष्ट्रीय निषाद पार्टी आदि के साथ भी यही फार्मूला लागू हुआ. झारखंड का सामाजिक-जातीय आधार झामुमो, कांग्रेस और भाजपा से विलग अन्य के लिए मुफीद नहीं लगता. थोड़ा आधार आजसू का भी है, जिस पर झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा झपट्टा मारने को तत्पर है. बाबूलाल मरांडी जैसे राजनेता को 14 वर्षों के संघर्ष के बाद थक-हारकर भाजपा में वापस होना पड़ा. सरयू राय को अंततः जदयू में आश्रय तलाशना पड़ा. यहां मुख्य सवाल पांच संसदीय और 28 एसटी विधानसभा सीटें हैं. हालिया लोकसभा चुनाव में भाजपा पांचों एसटी सीटें हार गई, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में वह केवल दो एसटी सीटें पा सकी थी. ऐसे में चम्पाई बिना भाजपा में शामिल कराये उसका तुरूप का पत्ता हो सकते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा कोल्हान की सभी 14 विधानसभा सीटें गंवा चुकी थी, जिनमें नौ एसटी सीटें भी हैं. उस इलाके में भाजपा को एक संताल क्षत्रप की बेसाख्ता जरूरत है, जो थोड़ा-बहुत ही सही संतालपरगना की कुल जमा 18 में से सात एसटी सीटों पर भी असर डाल सके. बड़े दल अपनी सुविधानुसार पिछलग्गू क्षेत्रीय क्षत्रप तैयार करते रहे हैं. भाजपा इसमें माहिर है. वह अपने सामाजिक आधार के अलावा हिंदुत्व का कार्ड जहां नहीं चला पाती, वहां ऐसा खेल खेलने में नहीं चूकती. चूकना भी नहीं चाहिए. हेमंत के सरना धर्म कोड और ‘32 की खतियान आधारित स्थानीयता नीति का काट ऐसी ही ‘संरचनाएं’ हो सकती हैं, जो खुद चाहे न पनप सकें, लेकिन अगले को मुरझा सकें. शिबू सोरेन के रहते हेमंत ने खुद को स्थापित किया, लेकिन सवाल यह है कि ओल्ड गार्ड से छुटकारा पाकर भी क्या वे अपनी मजबूती बनाये रखेंगे? यूं, शिबू का चेहरा अभी उनके पास है ही. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.  [wpse_comments_template]

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