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आजाद लबों पर पहरे से बेखौफ गैर भाजपाई मुख्यमंत्री के सवालों को भी गौर करने का समय

Faisal Anurag

राकेश राठौर ने हाल में कहा था जुबान खुलेगी तो उन पर भी देशद्रोह का मामला दर्ज हो जाएगा और यह भी कहा था कि अब वह बात नहीं हैं कि लब आजाद हैं. राकेश राठौर उत्तर प्रदेश के सीतापुर से विधायक हैं. भाजपा के विधायकों और सांसदों के अंदर जो डर है उसे ही उन्होंने प्रकट किया है. बोला कि लब आजाद हैं का दौर पर हुए प्रहार की असर है कि विपक्ष के नेताओं से भी यही अपेक्षा की जाने लगी है कि वे सरकार के गुणगान में हिस्सेदार बन जाएं. यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उसकी कीमत चुकानी होगी. ममता बनर्जी का नया प्रकरण इसी ओर इशारा करता है.

ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री संवाद के बाद मीडिया से उसकी बात को दुहरा दिया, जिसे कुछ ही समय पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेने ने कहा था कि एक तरफ मन की बात होती है और राज्यों की पीड़ा नहीं सुनी जाती है. यदि गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को ऐसा महसूस हो रहा है तो इसका जबाव तो प्रधानमंत्री को ही देना चाहिए. लेकिन सरकार और भाजपा के नेता ममता बनर्जी के खिलाफ प्रचार में लग गए हैं. मानों उन्होंने अपराध कर दिया हो. उनकी भाषा तल्ख जरूर है, लेकिन यदि भारत के संघात्मक ढांचे का सम्मान नहीं हो रहा है तो कोई भी मुख्यमंत्री चुप कैसे रह सकता है. वह भी तो प्रधानमंत्री की तरह जनता के भारी बहुमत से जीत कर सरकार में आता है. अरविंद केजरीवाल हों या उद्धव ठाकरे सब को जुबान खोलने के कारण भाजपा नेताओं के हमले का शिकार होना पड़ा है. सीधे जिलाधीशों से बात करने का सवाल तो अलग ही है. राज्य सरकार की जो संवैधानिक गरिमा है उसमें यह दखल है या नहीं इस सवाल पर तो अभी तक बहस ही नहीं हुआ है.

याद किया जा सकता है कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब वे केंद्र की डा. मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ किस तरह के शब्दों का प्रयोग करते थे. उनके तब प्रयोग किए गए शब्दों की तुलना में तो ममता बनर्जी और हेमंत सोरेन के शब्द बेहद नरम लगते हैं. सवाल यह नहीं है कि कौन तल्ख है या कौन नरम. सवाल तो यह है कि विपक्ष के मुख्यमंत्रियों को उपेक्षा भाव का अहसास सामान्य नहीं है. भाजपा के ही प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी थे. उनके कार्यकाल में तो टैक्स सुधार के लिए बनी एक कमेटी का प्रधान बंगाल के वामपंथी मुख्यमंत्री ज्योति बसु को बनाया गया था. कई ऐसे अवसर उस दौर में आए जब आर्थिक मामलों की राज्य के मुत्रियों की कमेटी का नेतृत्व तब के बंगाल के वामपंथी सरकार के वित्तमंत्री असीम दासगुपत को बनाया गया. भारत के इस लोकतंत्र की खासियत ही थी, राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधिमंडल का नेता बनाया था. जवाहर लाल नेहरू के जमाने में तो अटल बिहारी बाजपेयी युवा थे. लेकिन नेहरू उन्हें विदेश के बड़े नेताओं से दिल को खोल कर मिलवाते हुए परिचय देते थे. ये भारत में भविष्य के प्रधानमंत्रियों में एक हैं. तो ऐसा दौर था भारत के लोकतंत्र का.

लेकिन पिछले सात सालों में जिस तरह विपक्ष के मुख्यमंत्रियों ने बार-बार अपनी उपेक्षा का आरोप लगाया है उसे भाजपा चाहे तो दिन भर चलने वाल चैनल की बहसों से कठघड़े में खड़ा करे लेकिन इससे हकीकत नहीं बदल सकती है. देश एक विकट संकट के दौर में है. लेकिन प्रधानमंत्री ने एक बार भी सर्वदलीय बैठक की जरूरत महसूस नहीं किया है. उन्हें समझना चाहिए कि लोकतंत्र व्यक्ति केंद्रीयता का नाम नहीं है. विपक्ष का भी दायित्व है और उसकी राज्य सरकारों का भी. उन्हें भी अपनी पीड़ा,समस्या और हालात को सुनाने का पूरा हक है. केंद्र के मंत्री भले ही अपनी कही बात बदल दें जैसा नितिन गडकरी ने वैक्सीन वाले मामले में किया. लेकिन विपख के मुख्यमंत्रियों की आलोचना इसी आधार पर नहीं की जानी चाहिए कि उन्होंने प्रधानमंत्री पर सवाल उठाए हैं. महत्वपूर्ण उठे सवाल हैं उठाने वाला व्यक्ति नहीं.

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