Faisal Anurag
अखिल भारतीय सिविल सर्विस में चयन होते ही राज्य और इलाके के आप हीरो हो जाते हैं. न जाने कितने युवाओं को प्रेरित करते हैं. आदर्शों से प्रेरित सेवाकाल की शुरूआत अंत होते-होते रिटायरमेंट के बाद के लिये जुगाड़ करते-करते समझौते में बदल जाती है. इस बदलाव के लिए एक लंबी यात्रा नेताओं की चापलूसी और दलाली के रास्ते ही होती है. यह त्रासदी नहीं तो और क्या है.
ट्रेनिंग खत्म होते ही शपथ लेते हैं
– कि संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा रखूंगा.
– कि धर्म जाति से ऊपर उठ कर काम करूंगा.
– कि आपकी जाति धर्म राजनीतिक सोच न्यूट्रल रहेगी.
– कि आपकी सोच का दायरा किसी क्षेत्र या राज्य में सीमित न होकर देश होगा.
मगर यह शपथ किस तरह आप भूल जाते हैं. इस संकल्प को सतारूढ नेताओं के हितों के लिए कुर्बान करते हुए उन प्रार्थनाओं की याद भी नहीं रहती है, जो ट्रेनिंग के हर दिन सुबह में आप गाते हैं. “रहो धरम में धीर, रहो करम में वीर. रखो उन्नत सिर, डरो ना.” इस संकल्प से डिगना न केवल सिविल सर्विस की साख को गिराता है, बल्कि बाद की पीढी के लिए किस तरह की नजीर को आप पेश कर रहे होते हैं.
यदि हाल के ही सालों को देखा जाए तो न जाने कितने भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अधिकारी ऐसे हैं. जिन्होंने सत्ता की नजदीकी के लिए संविधान की मूल भावना को नजरअंदाज किया है. रिटायरमेंट के पहले ही “भविष्य के जुगाड़” की प्रतिस्पर्धा, घुटनाटेक, नौकरशाही की परंपरा को मजबूत बना रहा है.
रिटायर होने के बाद दो तरह के जुगाड़ किये जा रहे हैं. पहला किसी प्रभावी पद पर नियुक्ति और दूसरा सत्तारूढ दल में शामिल होकर सरकार या विधायिका, संसद तक पहुंच बनाना. मोदी सरकार के अजीत डोभाल कितने प्रभावी व्यक्ति हैं. यह हर कोई जानता है. डोभाल पुलिस सेवा के अनेक बड़े पदों पर रहते हुए पहले तो नरेंद्र मोदी की दिल्ली सत्ता तक की रणनीति के हिस्सेदार बने और पिछले सात सालों ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर हैं. डोभाल केंद्र सरकार के संकटमोचक बन कर यूं ही नहीं उभरे हैं.
आइएएस अरविंद कुमार शर्मा का नाम पिछले तीन दिनों से मीडिया की सुर्खियों में है. पिछले 20 सालों से वे नरेंद्र मोदी के नजदीकी रहे हैं. जब नरेंद्र मोदी दिल्ली आए, तो उन्हें भी गुजरात से केंद्र में ले आए. अब उन्होंने स्वैच्छिक अवकाश ले लिया है और इसी के साथ भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ले ली है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में वे एक बड़ी भूमिका निभाने वाले हैं.
संवैधानिक तौर पर रिटायर होने के बाद अधिकारियों पर कोई बंदिश नहीं है. लेकिन नैतिक तौर पर उसके कार्यकाल के फैसले निष्पक्ष तो नहीं ही माने जा सकते हैं. केंद्रीय मंत्रीमंडल में टॉप सेवा के तीन पूर्व अधिकारी बड़ी भूमिका में हैं. एस जयशंकर विदेश मंत्री हैं. इसके अलावा कैबिनेट में हरदीप सिंह पुरी भी हैं, जो विदेश सेवा में रहे हैं.
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी आर के सिंह भी मंत्री हैं. ये वही आर के सिंह हैं, जिन्होंने गृह सचिव के रूप में पहली बार “हिंदू टेरर” शब्द का प्रयोग किया था. लेकिन 2014 के मोदी लहर पर बिना देर लगाये सवार हो गये.
अर्जुन मेघवाल भी आइएएस रहे हैं. मुंबई पुलिस प्रमुख सत्यपाल सिंह तो याद ही हैं. जिन्होंने रिटायर होने के पहले ही अपना भाजपा प्रेम दिखाना शुरू कर दिया था. संसद तक की उनकी यात्रा पुलिस सेवा की निष्पक्षता को दागदार तो करती ही है.
डार्विन के सिद्धांत को यह कहते हुए इन्होंने चुनौती दे कर चर्चा हासिल की थी कि किसी को बंदर से आदमी बनते उन्होंने नहीं देखा है. अपराजिता सारंगी हों या ब्रिजेंद्र सिंह, सब की कहानी एक जैसी है.
पीडी बघेला, रीता केवटिया, पीके पुजारी जो गुजरात कैडर में रहे हैं, इसी तरह की भूमिका निभा रहे हैं. शशिकांत दास जो कि रिजर्व बैंक के गवर्नर हैं, वे भी सिविल सेवा के ही अधिकारी हैं.
यह जो परंपरा डाली गयी है. इसका कुल नतीजा यही है कि आने वाली पीढ़ी के लिए ऐसे उदाहरण पेश किए गए हैं, जिसमें एक अधिकारी सत्तारूढ दल और उसके नेता एक एजेंट बनकर भविष्य की सुरक्षा के लिए समझौते करे और आम लोगों के इंसाफ की उम्मीदों से खिलवाड़ करे. इस प्रवृति ने ब्यूरोक्रेसी के स्वाभिमान स्वतंत्र निर्णय की क्षमता को भी खत्म कर रखा है. लोकतंत्र के रूप लोक सेवक की भूमिका आत्मघाती प्रवृति का द्योतक है. चाटुकार नौकरशाही “कानून के राज” के लिए भी घातक हैं.