- आदिवासी संस्कृति की झलक और इतिहास से जुड़ी परंपरा
- NH-39 मार्ग पर यातायात व्यवस्था में बदलाव
Ranchi : जिले के मुड़मा गांव में आज से पारंपरिक मुड़मा मेला की शुरुआत हो गई है. हिंदी पंचांग के अनुसार, हर साल कार्तिक महीने के पहले दिन से मेला शुरू होता है और दो दिन तक चलता है.
विधिवत पूजा कर होती है मेले की शुरुआत
मुड़मा मेला झारखंड की आदिवासी परंपरा और संस्कृति से गहराई से जुड़ा हुआ है. मेले की शुरुआत सबसे पहले पाहन (पुजारी) द्वारा विधिवत पूजा-अर्चना के साथ होती है. पूजा के बाद 40 पाड़हा (गांव समूह) के लोग अपने पारंपरिक वस्त्र पहनकर जुलूस निकालते हैं. मांदर की थाप पर नृत्य कर लोग अपनी पारंपरिक पहचान और एकता का प्रदर्शन करते हैं.
आदिवासी जीवनशैली व परंपरा की झलक
मेले में आदिवासी जीवनशैली और परंपरा की झलक देखने को मिलती है. यहां पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र, लोक वाद्ययंत्र, हस्तशिल्प, मिट्टी के बर्तन, बांस से बने सामान से लेकर घरेलू पकवान और लोक व्यंजन तक सब कुछ उपलब्ध होता है.
NH-39 मार्ग पर यातायात व्यवस्था में बदलाव
आज मेले का उद्घाटन समारोह आयोजित किया गया है. बड़ी संख्या में ग्रामीणों और आगंतुकों की भीड़ को देखते हुए प्रशासन ने NH-39 मार्ग पर यातायात व्यवस्था में बदलाव किया है. अगले दो दिनों तक इस मार्ग से गुजरने वाले वाहनों को वैकल्पिक रास्ते से डायवर्ट किया गया है, ताकि मेला क्षेत्र में जाम या दुर्घटना की स्थिति न बने.
मुड़मा मेला का इतिहास
मुड़मा मेले की शुरुआत कब हुई, इसकी कोई लिखित प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती, लेकिन लोकगीतों और किवदंतियों के अनुसार, यह मेला उरांव जनजाति के पलायन से जुड़ा हुआ है.
कहा जाता है कि जब मुगलों ने रोहतासगढ़ पर अधिकार कर लिया था, तब वहां रहने वाले उरांव समुदाय के लोगों को अपना गढ़ छोड़ना पड़ा था. वे सोन नदी पार करते हुए पलामू से गुजरकर वर्तमान रांची जिले के मुड़मा इलाके में पहुंचे थे.
यहां उनका सामना मुंडा जनजाति के मुखिया (मुंड़ा) से हुआ. उरांव लोगों की व्यथा सुनकर मुंडाओं ने उन्हें जंगल के पश्चिमी हिस्से को साफ कर बसने की अनुमति दी. इस ऐतिहासिक समझौते की याद में उरांव समुदाय के 40 पाड़हा के लोग हर साल इस मेले का आयोजन करते हैं, जिसे मुड़मा जतरा कहा जाता है.
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