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RSS की कमाई पर धूल डालने को तैयार आदिवासी नेता

Parikshit Mishra हिंदुत्व, आरएसएस और भाजपा का एकमात्र मुद्दा जिस पर कोई इन्हें घेर नहीं सकता. ऐसा मुगालता दोनों संगठनों को है. लेकिन अब आदिवासी ऐसी चोट कर रहे हैं कि आरएसएस के वनवासी कल्याण परिषद द्वारा बरसों मेहनत करके आदिवासी क्षेत्रों में खिलाया गया कमल अब मुरझाने की स्थिति आ गया है. ऐसा पूर्व से पश्चिम तक करीब 7 से ज्यादा राज्यों में हो रहा है. ये ताजा मामला राजस्थान में देखने को मिला. झारखंड के बाद राजस्थान विधानसभा में भी आदिवासी नेता ने 2021 की जनगणना में आदिवासी धर्म कोड का अलग कॉलम बनाने की मांग रख दी. इतना ही होता तो ठीक था. लेकिन विधायक ने ये तक कह दिया कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं. इससे पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कह चुके हैं कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं. अब आरएसएस इस दुख को झेलने को मजबूर हैं. कांग्रेस के विधायक द्वारा ऐसा कहने के बाद भी मेनस्ट्रीम मीडिया के पत्रकार इस मुद्दे के पीछे नहीं पड़े. ये मुद्दा भाजपा और आरएसएस ने भी नहीं उठाया. उसके पीछे कारण है. दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहकार्यवाहक डॉ कृष्णगोपाल ने वर्ष 2015 में झारखंड में ऐसा करने की हिमाकत कर ली थी. इसके बाद वहां जो हुआ उससे आरएसएस और भाजपा दोनो में ही दहशत आ गई. सह कार्यवाह ने सिर्फ ये कहा था कि आदिवासी सरना हिन्दू हैं, उनका कोई अलग धर्म नहीं है. इसके बाद वहां मोहन भागवत और डॉ कृष्ण गोपाल के पुतले जलने जो शुरू हुए तो ये कर्म कई दिनों तक चला. परिणाम स्वरूप वहां से भाजपा को सत्ता गंवानी पड़ी. इस डर का परिणाम ये हुआ कि 11 नवंबर 2020 को झारखंड विधानसभा में सरना आदिवासी धर्म कोड संकल्प का जो प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया, उसका समर्थन भाजपा ने किया. ये तो एक उदाहरण हुआ. राजस्थान में भी आदिवासी क्षेत्रों में सिर्फ 2 साल पुरानी पार्टी भारतीय ट्राइबल पार्टी ने आदिवासी बहुल डूंगरपुर जिले की दो सीटें भाजपा से छीन ली. ये क्षेत्र अदिवासियों के हिन्दू होने का यकीन दिलाने के बाद वहां 10 साल से स्थायी रूप से भाजपा का गढ़ बन चुका था. यहां भाजपा के राज्य मंत्री को हराने वाला 25 साल का सबसे छोटा विधायक था. भाजपा को भी पता है कि यदि उन्होंने इस मुद्दे का विरोध किया तो उनका हश्र बुरा होना है. वर्षों से आरएसएस ने वनवासी कल्याण परिषद के माध्यम से आदिवासी क्षेत्रों में जो भाजपा को जड़ें जमाई थी, वो सिर्फ 6 सालों में ही उखड़ने लगी है. किसान आन्दोलन ने आरएसएस के द्वारा स्थापित की गई दूसरी आरएसएस (राष्ट्रीय सिख संघ) और ओबीसी वोट बैंक को भी तार-तार कर दिया है. बुजुर्ग ठीक कह गए हैं. पूत कपूत तो क्या धन संचय? पूत सपूत तो क्या धन संचय ? तो एक बन्दे ने आरएसएस को कमाई और देश की कमाई दोनों को तबाह कर दिया है. डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं और यह लेख उनके फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हो चुका है.

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