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अमेरिकी चुनाव परिणाम पलटने में ट्रंप का आखिरी दांव

Faisal Anurag ट्रंप आखिरी दम तक चुनाव परिणाम को पलटने की अंतिम कोशिश में लगे हुए हैं. आमतौर पर अविकसित और विकासशील देश ही चुनावों में धांधली के लिए जाने जाते हैं. लेकिन अमेरिका जैसे लोकतंत्र को भी हाइजैक करने की डोनाल्ड ट्रंप और उनके रिपब्लिकन सांसदों ने जगहंसाई कर दी है. दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र की रक्षा की आवाज उठाने वाले अमेरिका की यह मिसाल बताती है कि सत्ता की भूख किस तरह तमाम नियम कायदों को तोड़ती है. अमेरिका के एक बड़े अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने एक रिकॉर्डिंग सार्वजनिक किया है, जिसमें ट्रंप जॉर्जिया के चुनाव अधिकारी से परिणामों को अपने पक्ष में बदलने को कह रहे हैं. ट्रंप जॉर्जिया के  सेक्रेट्री ऑफ स्टेट ब्रेड रेफेनस्पर्जर से 11780 वोटों की हेराफेरी करने को कह रहे हैं. हालांकि रेफेनस्पर्जर  ट्रंप की पेशकश को इनकराते सुने जा सकते हैं. लेकिन इस रिकॉर्डिग ने अमेरिकी लोकतंत्र और उसके चुनावों की निष्पक्षता को लेकर चिंता बढ़ा दी है. ट्रंप ने जिस तरह अमेरिका चुनावों में नस्लवाद को बढ़ावा दिया और मतदाताओं को धमकाने का प्रयास किया, उसकी पहले भी चर्चा की जा चुकी है. बाइडेन की जीत को चुनौती देते हुए अमेरिका के विभिन्न अदालतों में 60 याचिकाएं दायर कीं. ये सारी याचिकाएं खारिज की जा चुकी हैं. इस बीच अमेरिका के 11 रिपब्लिकन सीनेटरर्स ने  चुनाव की आखिरी प्रक्रिया को बाधित करने के लिए पत्र जारी किया है. अमेरिका में छह जनवरी को  अमेरिकी कांग्रेस ​पिछले महीने इलेक्ट्रोल कॉलेज के नतीजों पर अंतिम मुहर लगाते हुए प्रमाणित करेगी. चुनाव प्रक्रिया का यह अंतिम पायदान है. कांग्रेस से अंतिम मुहर लगना तय है. 20 जनवरी को जो बाइडेन और कमला हैरिस ह्वाइट हाउस में शपथ लेंगे. 11 रिपब्लिक सिनेटर्स प्रक्रिया बाधित करने के लिए एक आयोग बनाने की मांग कर रहे हैं, जो चुनावों की कथित धांधली की जांच करें. हालांकि 60 याचिकाओं के अदालतों से रद्द किये जाने के बावजूद ट्रंप के निकट के सिनेटरों की कोशिश है कि वे 20 दिनों के लिए शपथ ग्रहण को लटका दें. 1877 में एक बार चुनावों में अनि​यमितता के आरोपों की जांच के लिए एक आयोग का गठन  अमेरिका में किया गया था, लेकिन उससे नतीजों पर असर नहीं पड़ा. अंतिम चुनाव परिणामों में ट्रंप को केवल 232 इलेक्ट्रोल वोट पड़े, जबकि बाइडेन को 306. इस बड़ी जीत ने ट्रंप के चार साल के कुशासन पर वोटरों के फैसलों को निर्णायक बना दिया. अमेरिका के लोगों के लिए ट्रंप का शासनकाल एक दु:स्वप्न साबित हुआ, जो ट्रंप के झूठे प्रोपेगेंडा का ही गवाह है. हालांकि ट्रंप के दावों के बावजूद न तो बेरोजगारी कम हुई, न ही वैश्विक मामलों में अमेरिका की कोई बड़ी भूमिका दिखी. अफगानिस्तान से लेकर दक्षिण कोरिया तक के मामले होने के बजाय पेचीदा ही हो गए. कोविड महामारी के मामले को लेकर ट्रंप दुनिया के सबसे अयोग्य राष्ट्राध्यक्ष साबित हुए हैं जबकि देश के भीतर नस्लवाद को बढ़ाने में अग्रणी रहे हैं. उन्होंने लातिनी अमेरिकी देशों में अमेरिका विरोधी माहौल को तीखा ही किया है. लेकिन अमेरिका चुनावों में हेराफेरी के आरोप में ट्रंप या उनके सहयोगी एक भी प्रमाण नहीं दे पाये हैं. उनके आरोपों को अदालतों ने जिस तरह खारिज किया, वह शासक के सनक ही बानगी है. बीबीसी के विशेषज्ञ कंमेंटर एंथेनी आर्चर ने लिखा है : आपत्ति जताने वाले नेताओं का मकसद चुनाव के नतीजों को बदलना नहीं, बल्कि राष्ट्रपति ट्रंप के वफादारों का समर्थन पाना है ताकि वो अपने लिए रास्ता बना सके. उन्हें लगता है कि रिपब्लिकन पार्टी में सफलता का रास्ता डोनाल्ड ट्रंप और उनके वफादारों से होकर जाता है, जिनका समर्थन उन सीनेटर्स के लिए ज़रूरी है, जो राष्ट्रपति बनने की ख्वाहिश रखते हैं. जैसे की टेड क्रूज या जॉश हॉले. उन्हें चिंता है कि कहीं उन्हें भविष्य में ट्रंप समर्थकों से विरोध का सामना ना करना पड़े. यह पहली बार नहीं है, जब कांग्रेस के सदस्यों ने राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों से निराश होकर बड़े पैमाने पर इलेक्टोरल कॉलेज के वोटों की गिनती के दौरान आपत्ति जताई है. हालांकि यह लगभग डेढ़ सदी में सबसे बड़ा विद्रोह होगा. अमेरिका के रिपब्लिकन पार्टी को ट्रंप ने अपने चार सालों के शासनकाल में ही इस हाल में पहुंचा दिया है. कई पूर्व रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों, जिसमें जॉर्ज बुश भी शामिल हैं. उन्होंने ट्रंप के कदमों की आलोचना की है. रिपब्लिकन इससे पहले कभी ऐसे हालात के शिकार नहीं रहे हैं. ट्रंप और रिपब्लिक परिघटना बताती है कि कॉरपोरेटपरस्त शासक जो खुद ही एक कॉरपारेट हों, किस तरह सत्ता में बने रहने के लिए चुनावों को माखौल बना दे सकता है. लोकतंत्र की राह चुनौती भरी है. केवल जनसतर्कता से ही इसका रक्षा कवच है.  

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