Prabhat Patnaik
अर्थशास्त्र में दो तरह के सिस्टम के बीच फर्क किया जाता है, एक वह जहां बाजार में मांग की कमी हो, दूसरा वह जहां संसाधन की कमी हो (इसे हम सरल ढंग से आपूर्ति की कमी वाला सिस्टम कहेंगे). पहले सिस्टम में उत्पादन में वृद्धि हो सकती है अगर कुल मांग में वृद्धि हो. जाहिर है ऐसे सिस्टम में कोई अभाव- जनित महंगाई नहीं होगी. दूसरे सिस्टम में उत्पादन की कमी कई कारणों से हो सकती है, मसलन, या तो सिस्टम के उत्पादन की पूरी क्षमता भर उत्पादन हो रहा हो- अर्थात और अधिक उत्पादन की क्षमता सिस्टम में न हो, अथवा किसी ऐसी लागत सामग्री का अभाव हो जो उत्पादन के लिए अनिवार्य है या खाद्यान्न की कमी हो अथवा श्रम शक्ति की कमी हो, जाहिर है ऐसे सिस्टम में मांग बढ़ने पर उत्पादन नहीं बढ़ सकता, ऐसी स्थिति में अभाव- जनित महंगाई बढ़ जाएगी. पूंजीवाद आमतौर पर, युद्ध के दौर को छोड़कर, मांग की कमी वाला सिस्टम है, जबकि समाजवाद, जैसा सोवियत यूनियन और पूर्वी यूरोप में था, वह आपूर्ति की कमी वाला सिस्टम था. मांग की कमी वाले सिस्टम में अगर कुल मांग बढ़ती है तो उत्पादन बढ़ेगा, फलस्वरूप रोजगार भी बढ़ेगा. भारत में आज के दौर में इस फर्क को ध्यान में रखना जरूरी है, जब यहां बेरोजगारी एक गंभीर सामाजिक मुद्दा बन गई है, जब इसकी भयावहता हालिया चुनाव में भाजपा को लगे झटके के पीछे प्रमुख कारक रही और जब इसका उन्मूलन आज सर्वोच्च प्राथमिकता का विषय बन गया है. क्योंकि सरकारी सेवाओं समेत सेवा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार में सचेतन ढंग से कटौती हुई है, जहां पूंजी की कमी की कोई भूमिका नहीं है. इसलिए हम आपूर्ति की किसी कमी को बेरोजगारी के मौजूदा स्तर के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते.
ठीक इसी तरह बेरोजगारी का मौजूदा स्तर किसी ऐसी लागत सामग्री की कमी के कारण नहीं है, जो उत्पादन के लिए अनिवार्य है. खाद्यान्न की भी कोई कमी नहीं है, यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि मोदी सरकार जो गरीबों को विपक्ष द्वारा दी जा रही आर्थिक मदद को ” रेवड़ी ” कह कर मजाक उड़ाती है, वह कुछ चुनावी फायदे की उम्मीद में बड़ी तादाद में लाभार्थियों को मौजूदा स्टॉक से 5 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह अनाज मुफ्त देती रही है. यह सच है कि भारत इस समय अपने कम हो गए खाद्यान्न भंडार को फिर से भरने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से गेहूं खरीदने की तैयारी में है. लेकिन इसके पीछे कारण कुप्रबंधन है, न कि देश में अनाज की कोई वास्तविक कमी है. इसलिए भारत में इस समय जो भारी बेरोजगारी है, वह मांग की कमी के कारण है. इसके उन्मूलन के लिए जरूरी है की कुल मांग बढ़ाने के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं, जिसमें सरकारी खर्च/निवेश की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होगी.
बड़ी तादाद में सरकारी पद खाली पड़े हैं, शिक्षा क्षेत्र में तो स्टाफ की इतनी कमी है कि अचरज होता है. जाहिर है इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ रहा है. यहां तक कि सशस्त्र बलों में भी जो नियमित भर्ती होती थी, वह नहीं हो रही है जिसकी वजह से अग्निवीर जैसी तरह तरह की योजनाएं लागू की जा रही हैं. संक्षेप में, रोजगार देने में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की बजाय, यह विडंबना है कि सरकार रोजगार में कटौती कर रही है, इसका कारण यह लगता है कि वह वित्तीय दबाव में है. आइए इस मामले को थोड़ा और बारीकी से देखते हैं.
जिस मूलभूत फर्क की हमने ऊपर चर्चा की, वह मांग की कमी और आपूर्ति की कमी वाले दो सिस्टम के बीच थी. आपूर्ति की कमी, जो अभी हमने देखा कि हमारे यहां नहीं है, को छोड़कर और दूसरी कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे एक संप्रभु राज्य पर वस्तुगत वित्तीय बंदिश कहा जा सके. ऐसी कोई भी वित्तीय बंदिश राज्य पर अंतरराष्ट्रीय पूंजी और उसके स्थानीय सहयोगी, घरेलू कारपोरेट वित्तीय समूह द्वारा थोपी गई चीज है. यह राज्य की किसी वस्तुगत सीमा का नहीं, वरन उसकी स्वायत्तता के क्षरण का प्रतिबिंब है. मांग की कमी वाले किसी देश में राज्य की खर्च करने की क्षमता की कोई वस्तुगत सीमा नहीं है, यह तथ्य अर्थशास्त्र के साहित्य में 90 साल पहले ही कैलेकी और कीन्स की सैद्धांतिक क्रांति द्वारा स्थापित कर दिया गया था. फिर भी वह गलत सिद्धांत जिसे 9 दशक पहले ही खारिज कर दिया गया था, उसे फिर आज राज्य की वस्तुगत सीमा के बतौर पुनर्जीवित किया जा रहा है, जबकि वह दरअसल राज्य पर बड़े पूंजी घरानों द्वारा थोपी गई बंदिश है.
बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए सबसे बड़ी जरूरत यह है कि राज्य वैश्विक तथा देशी बड़ी पूंजी की सनक की गुलामी के जुए को उतार फेंके, उसे पुनः जनता की सेवा के संकल्प को हासिल करना होगा तथा उसके अनुरूप काम करना होगा. एक ऐसे सिस्टम में जहां मांग की कमी है, बड़े पैमाने पर सरकारी खर्च से बेरोजगारी पर काबू पाया जा सकता है, भले ही यह खर्च वित्तीय घाटे के माध्यम से किया जा रहा हो. इसका जो सबसे नुकसानदेह असर है, वह यह नहीं है कि यह निजी निवेश को हतोत्साहित करेगा, साथ ही इसके खिलाफ किए जा रहे दूसरे बकवास दावे भी सच नहीं हैं, लेकिन इसकी मुख्य बुराई यह है कि यह अनायास ही देश में आय की असमानता को बढ़ा देगा. अगर सरकार 100 रुपए खर्च करती है और ऐसा वित्तीय घाटे द्वारा करती है अर्थात कर्ज लेकर, तो इसका अंतिम नतीजा यह होगा कि अपने इस तरह खर्च द्वारा वह पूंजीपतियों के हाथ 100 रुपए दे रही है ( क्योंकि मेहनतकश लोग जितना कमाते हैं, करीब-करीब वह पूरा खर्च कर देते हैं. उदाहरण के लिए इस मामले में सरकार ने जो 100 रुपया खर्च किया, वह मजदूरों को मिला, उन्होंने उसे पूरा खर्च कर दिया, इस तरह वह 100 रुपया पूंजीपतियों के पास पहुंच गया.) और फिर सरकार उसे पूंजीपतियों से उधार लेती है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.