श्रीनिवास
इनके पास धार्मिक/सांप्रदायिक गोलबंदी, या कहें, ‘हिंदुओं का खून खौलने’ के लिए मुद्दों और तरीकों की कमी नहीं है. ये इनका प्रयोग लगातार करते रहते हैं. अब एक ऐसा ही पुराना मुद्दा नये रूप में लाया गया है. ‘वंदे मातरम’ गीत के 150 वर्ष पूरे होने पर देशव्यापी समारोह! शायद याद हो, कुछ वर्ष पहले ये जोर जोर से ‘‘भारत में यदि रहना है, तो ‘वंदे मातरम’ गाना होगा” चिल्लाते थे. किसी के इनकार करने पर मारपीट और अपमानित करने की घटनाएं भी हुईं! ये क्यों और किनसे जबरन यह गीत गवाना चाहते हैं, यह रहस्य नहीं है.
वैसे मुसलमानों के साथ ही अनीश्वरवादियों व सेकुलर जमातों को भी इस गीत पर आपत्ति रही है. संविधान निर्माण के समय इस पर बहस भी हुई थी. और आपत्ति के कारण ही इस गीत को राष्ट्र गान के रूप में नहीं, ‘राष्ट्र गीत’ के रूप में स्वीकार किया गया. पूरे गीत को भी नहीं, कुछ पदों को. इसलिए कि शेष हिस्से में हिंदू धर्म और हिंदुओं की देवी दुर्गा की स्तुति है, जो एक धर्मनिरपेक्ष देश के लिए उचित नहीं माना गया! जो मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते, उन पर इसे थोपना तो और भी गलत होता. मगर विवाद सिर्फ इस गीत या इसके कुछ हिस्सों को लेकर नहीं, ‘आनंद मठ’ नामक उस उपन्यास को लेकर भी है, जिसमें यह गीत है.
इस विषय पर आगे चर्चा करने से पहले एक बात- उपन्यास 1882 ई में प्रकाशित हुआ था. मोटे हिसाब से उसके डेढ़ सौ वर्ष 2032 में पूरे होंगे. तो 2025 में गीत के डेढ़ सौ वर्ष होने पर जश्न मनाने का मतलब? वे कुछ भी कह सकते हैं! मूल सवाल तो यही करेंगे कि देशभक्ति की प्रेरणा देने वाले इस गीत से किसी को आपत्ति क्यों है और होनी चाहिए? और आपत्ति करने वालों की देशभक्ति पर सवाल किया जायेगा. अब आप हनुमान जी की तरह छाती चीर कर देशभक्ति का सबूत तो दे नहीं सकते, तो गाली सुनिए, देशद्रोही (असल में हिंदूद्रोही’ घोषित होने के लिए तैयार रहिए). आपका कोई तर्क उनको संतुष्ट नहीं कर सकता. मगर सामान्य लोगों (विशेष कर हिंदुओं), जो अब तक उस हद तक धर्मांध या अंधभक्त नहीं हो चुके हैं, की जानकारी के लिए कुछ बात...
यह तो सर्वज्ञात है कि ‘वंदे मातरम’ गीत बंकिम चंद्र चटर्जी के चर्चित उपन्यास ‘आनंदमठ’ से लिया गया है. यह (प्रकट में) 18 वीं सदी के बंगाल में वहां के एक क्रूर/अत्याचारी मुसलिम शासक के विरुद्ध ‘संतान दल’ नामक हिंदुओं के एक संगठन के संघर्ष की कथा है. ‘प्रकट में’ इसलिए कि माना जाता है कि यह 1773 में उत्तरी बंगाल में हुए ‘संन्यासी विद्रोह’ पर आधारित है, जो किसानों के शोषण के खिलाफ था, जिसमें हिंदू संन्यासियों के साथ मुसलिम फकीर भी शामिल थे. मगर चूंकि लेखक बंकिम चंद्र सरकारी मुलजिम थे, इसलिए अंग्रेजों के कोप से बचने के लिए इसका स्वरूप बदल दिया. लेकिन जब बात उपन्यास की होगी, तो वह जिस रूप में छपा, जो हमारे सामने है, उस आधार पर ही तो उसका आकलन होगा!
इस उपन्यास और उसके इस गीत ने तब बंगाल सहित देश के बड़े हिस्से में आजादी के लिए लड़ रहे युवाओं को प्रेरित किया और ‘वंदे मातरम’ क्रांतिकारियों का नारा और मंत्र बन गया. बंगाल के अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी. लेकिन उपन्यास में जिस ‘भारत माता’ की कल्पना की गयी है, उसका जो चित्र दर्शाया गया है, जिसकी पूजा होती है और जिसकी अभ्यर्थना में यह गीत गाया जाता है, वह प्रत्यक्षतः हिंदुओं की देवी दुर्गा ही हैं. बहुतेरे हिंदुओं के लिए भारत माता और दुर्गा माता एक हो सकती हैं. मगर किसी गैर हिंदू, खास कर मुसलमान को दुर्गा-रूपी ‘भारत माता’ की आराधना करने को बाध्य करने का प्रयास और ऐसा न करने पर उसकी देशभक्ति पर संदेह करना सरासर ज्यादती है. मौजूदा सत्ता पक्ष, ख़ास कर संघ के लिए तो ‘वंदे मातरम’ हथियार ही बन गया है. पर ‘आनंदमठ’ से जुड़ी सच्चाई को न जानने के कारण बहुतेरे आम लोग (हिंदू) भी इसे समझ नहीं पाते हैं.
‘वंदे मातरम’ का एक सच यह है कि ‘आनंदमठ’ का मूल या प्रमुख स्वर मुस्लिम विरोधी होने के साथ ही ‘गौरांग महाप्रभुओं’ की अभ्यर्थना का भी है. उपन्यास में ‘मातृभूमि’ या देश के प्रति भक्ति तो है, लेकिन उपन्यास में किसी एक अत्याचारी मुस्लिम शासक के खिलाफ नहीं, मुस्लिम समुदाय विरोधी भावना व बातें भरी पड़ी हैं. अंग्रेजों को भारत (हिंदू भारत) के ‘उद्धारक’ के रूप में भी देखा गया है. किसी तर्क की गुंजाइश नहीं है.
यकीन नहीं हो रहा, तो उपन्यास के इस अंतिम हिस्से को देखें : शत्रुओं (मुस्लिम) पर हमला करने जा रहे संतान दल को अंग्रेजों की एक टुकड़ी चुनौती देती है. दोनों पक्षों में युद्ध होता है. “... भवानंद (संतान दल के एक योद्धा) ने स्वयं जाकर कप्तान टॉमस को पकड़ लिया. कप्तान अंत तक युद्ध करता रहा. भवानंद ने कहा- ‘कप्तान साहब, मैं तुम्हें मारूंगा नहीं. अंगरेज हमारे शत्रु नहीं हैं. क्यों तुम मुसलमानों की रक्षा के लिए आये? तुम्हें प्राणदान तो देता हूं. लेकिन अभी तुम हमारे बंदी अवश्य रहोगे. अंगरेजों की जय हो. तुम हमारे मित्र हो..’'
संतान दल’ को मुसलिम शासक के खिलाफ जीत मिल चुकी है, लेकिन तब तक अंगरेज एक मजबूत ताकत के रूप में उभर चुके हैं. ‘संतान दल’ के दो प्रमुख योद्धा- भवानंद और सत्यानंद- अपने गुरु ‘महात्मा’ के पास गये हैं. दोनों निराश हैं. तब महात्मा उनसे कहते हैं- “..सत्यानंद, कातर न हो. तुमने बुद्धि विभ्रम से दस्युवृत्ति द्वारा धन संचय कर रण में विजय ली है. पाप का कभी पवित्र फल नहीं होता. अतएव तुम लोग देश-उद्धार नहीं कर सकोगे. और अब जो होगा, अच्छा होगा. अंगरेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नहीं हो सकेगा. महापुरुषों ने जिस प्रकार समझाया है, मैं उसी प्रकार समझाता हूं, ध्यान देकर सुनो! तैंतिस कोटि देवताओं का पूजन सनातन-धर्म नहीं है... इसलिए वास्तविक सनातन- धर्म के उद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान-प्रचार की आवश्यकता है... अंगरेज उस ज्ञान के प्रकांड पंडित हैं... लोक-शिक्षा में बड़े पटु हैं. अत: अंगरेजों के राजा होने से, अंगरेजी की शिक्षा से स्वत: वह ज्ञान उत्पन्न होगा. जब तक उस ज्ञान से हिंदू ज्ञानवान, गुणवान और बलवान न होंगे, अंगरेज राज्य रहेगा. उस राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे. अंगरेजों से बिना युद्ध किये ही, निरस्त्र होकर मेरे साथ चलो...’
सत्यानंद ने कहा- महात्मन, यदि ऐसा ही था, अंगरेजों को ही राजा बनाना था, तो हम लोगों को इस कार्य में प्रवृत्त करने की क्या आवश्यकता थी?’ ‘महापुरुष’ ने कहा- ‘अंगरेज उस समय बनिया थे- अर्थ-संग्रह में ही उनका ध्यान था. अब ‘संतानों’ के कारण ही वे राज्य-शासन हाथ में लेंगे. क्योंकि बिना राजत्व लिये अर्थ-संग्रह नहीं हो सकता... अंगरेज राजदंड लें, इसलिए संतानों का विद्रोह हुआ है... शत्रु कौन है? शत्रु अब कोई नहीं. अंगरेज हमारे मित्र हैं.. फिर अंगरेजों से युद्ध कर अंत में विजयी हो--ऐसी अभी किसी की शक्ति नहीं..."
उपन्यास के अंतिम हिस्से का यह अंश देख लें- “..उस रात में गांव-गांव में, नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया. सभी चिल्ला रहे थे- मुसलमान हार गये. देश हम लोगों का हो गया. भाइयो! हरि-हरि कहो! गांव में मुसलमान दिखाई पड़ते ही लोग खदेड़ कर मारते थे. बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुंच कर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे. अनेक मुसलमान ढाढ़ी मुड़ा देह में भस्मी रमा कर राम-राम जपने लगे. पूछने पर कहते- हम हिंदू हैं. “
यह महज किसी शासक के खिलाफ क्रोध-घृणा का प्रदर्शन है? ‘वंदे मातरम’ को देशभक्ति का प्रमाण मानने वालों के अंदाज में क्या वही भाव आज भी नहीं दिखता? कुछ और- “...त्रस्त मुसलमानों के दल-के-दल नगर की तरफ भागे. राज-कर्मचारी व्यस्त हो गये. अवशिष्ट सिपाहियों को सुसज्जित कर नगर रक्षा के लिए स्थान-स्थान पर नियुक्त किया जाने लगा. नगर के किले में स्थान-स्थान पर, परिखाओं पर और फाटक पर सिपाही रक्षा के लिए एकत्रित हो गये. नगर के सारे लोग सारी रात जाग कर क्या होगा.. क्या होगा? करते रात बिताने लगे. हिंदू कहने लगे- आने दो, संन्यासियों को आने दो- हिंदुओं का राज्य- भगवान करें- प्रतिष्ठित हो. मुसलमान कहने लगे-इतने रोज के बाद क्या सचमुच कुरान शरीफ झूठा हो गया? हम लोगों ने पांच वक्त नवाज पढ़ कर क्या किया, जब हिंदुओं की फतह हुई. सब झूठ है! इस तरह कोई रोता हुआ, तो कोई हंसता हुआ बड़ी उत्कंठा से रात बिताने लगा...”
यह अंश पढ़ें तो मालूम होगा कि संतान विद्रोही केवल मुसलमानों को दुश्मन नहीं मानते थे, गैर सवर्ण हिंदुओं से भी उनको लगाव नहीं था- "...उस रात को हरि ध्वनि के तुमुल नाद से प्रदेश भूमि परिपूर्ण हो गई. संतानों के दल-के-दल उस रात यत्र- तत्र वंदे मातरम और जय जगदीश हरे के गीत गाते हुए घूमते रहे. कोई शत्रु-सेना का शस्त्र तो कोई वस्त्र लूटने लगा. कोई मृत देह के मुंह पर पदाघात करने लगा, तो कोई दूसरी तरह का उपद्रव करने लगा, कोई गांव की तरफ तो कोई नगर की तरफ पहुंच कर राहगीरों और गृहस्थों को पकड़ कर कहने लगा- वंदे मातरम कहो, नहीं तो मार डालूंगा. कोई मैदा-चीनी की दुकान लूट रहा था, तो कोई ग्वालों के घर पहुंच कर हांडी भर दूध ही छीन कर पीता था. कोई कहता- हम लोग ब्रज के गोप आ पहुंचे, गोपियां कहां हैं?
गौरतलब है कि तब भी कहा जा रहा था- "वंदे मातरम कहो, नहीं तो मार डालूंगा." और वे ‘ग्वालों’ को भी प्रताड़ित कर रहे थे. अब भी किसी को लगता है कि ‘वंदे मातरम’ विशुद्ध देशभक्ति का नारा है, तो क्या कहा जाये!
‘वंदे मातरम’ गाने से इनकार या परहेज के जो कारण कुछ या बहुतेरे मुसलमान बताते हैं, वह सब मुझे बहुत तर्कपूर्ण नहीं लगते. मगर देश का हर नागरिक ‘भारत’ (जो हिंदी व्याकरण के लिहाज से पुल्लिंग भी है) देश को ‘माता’ ही माने, यह जिद भी समझ से परे है. विचारणीय यह भी है कि वे ‘जन गण मन..’ से नहीं चिढ़ते हैं. तिरंगे को सलामी देने से भी उनका विरोध नहीं है. पर मेरी आपत्ति का कारण भिन्न है. एक तो ‘भारत में यदि रहना है, तो वंदे मातरम गाना होगा’ जैसे नारे को घोर आपत्तिजनक मानता हूं. यह सरासर मुस्लिम समाज को चिढ़ाना और धमकाना है. इस तरह दबाव में तो शायद मैं भी ‘वंदे मातरम’ गाने से इनकार कर दूंगा.
प्रसंगवश, यह जान लेना भी उपयोगी होगा : wikipedia पर ‘आनंदमठ’ की मूल कथा संन्यासी विद्रोह का यह उद्धरण उपलब्ध है- "समकालीन सरकारी रिकॉर्ड में इस विद्रोह का उल्लेख इस प्रकार है : 'सरकारी पदाधिकारियों को लूटने लगे और सरकारी खजाने को भी लूटा करते थे. कभी-कभी ये लुटे हुए पैसे को गरीबों में बांट देते थे. संन्यासी और फकीर के नाम से जाने जाने वाले डकैतों का एक दल है जो इन इलाकों में अव्यवस्था फैलाए हुए हैं और तीर्थ यात्रियों के रूप में बंगाल के कुछ हिस्सों में भिक्षा और लूटपाट मचाने का काम करते हैं, क्योंकि यह उन लोगों के लिए आसान काम है. अकाल के बाद इनकी संख्या में अपार वृद्धि हुई. भूखे किसान इनके दल में शामिल हो गए, जिनके पास खेती करने के लिए न ही बीज था और न ही साधन. 1772 की ठंड में बंगाल की निचली भूमि की खेती पर इन लोगों ने काफी लूटपाट मचाई थी. 50 से लेकर 1000 तक का दल बना कर इन लोगों ने लूटने, खसोटने और जलाने का काम किया… यह बंगाल के योगी, नाथ, गिरि, गोस्वामी सम्प्रदाय के संन्यासियों द्वारा शुरू किया गया था, जिसमें जमींदार, कृषक तथा शिल्पकारों ने भी भाग लिया. इन सबने मिल कर कंपनी की कोठियों और कोषों पर आक्रमण किये. ये लोग कंपनी के सैनिकों से बहुत वीरता से लड़े...”
उल्लेखनीय है कि ‘आनंद मठ’ पहले 'बंग दर्शन' पत्रिका में धारावाहिक के रूप में छपना शुरू हुआ था. माना जाता है कि उस समय तक उपन्यास में खलनायक मुस्लिम नहीं गोरे अंगरेज़ थे. इसका मुस्लिम विरोध से प्रतिस्थापन बाद में किया गया. यह स्वीकार किया जा सकता है कि बंकिम चंद्र को अपने सरकारी मुलाज़िम होने का डर सता रहा था. इसलिए अंग्रेजों के कोप से बचने के लिए उपन्यास के स्वरूप को बदल दिया. अन्यथा उस पर रोक लग सकती थी. संन्यासी विद्रोह में कई मुस्लिम फकीर भी शामिल थे. मगर उपन्यास में वह सब ओझल हो गया. इसलिए उपन्यास में मुस्लिम विद्वेष के बचाव में यह तर्क बहुत कमजोर है; इस कारण उपन्यास के उन प्रसंगों को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता. मगर किसी को संदेह है कि मौजूदा सत्ता पक्ष के लिए ‘वंदे मातरम’ से लगाव का मूल करण ही यही है! यह भी स्पष्ट है कि आज 'वंदे मातरम' से जिनका लगाव दिख रहा है, वे किस टाइप के 'देशभक्त’ हैं.
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