युद्धोन्मादी मीडिया कह रहा दुनिया को अमीर और सुरक्षित रखने के लिए युद्ध जरूरी है!
Faisal Anurag "लूट, कत्लेआम, झूठे बहानों से सत्ता कब्जाने को वे साम्राज्य कहते हैं, और युद्ध के सम्पूर्ण ध्वंस को कहते हैं शांति स्थापित हो गई." यह वाक्य सन् 83 रोमन साम्राज्य के हमले के खिलाफ लड़ते स्कॉट सरदार कैलगाकस ने कहे थे. अब तर्क दिया जा रहा है कि युद्ध जरूरी है. तो क्या यह अमेरिकी मीडिया का युद्धोन्माद है या फिर वास्तविकता कि युद्ध दुनिया को सुरक्षित और अमीर बनाते हैं. वाशिंगटन पोस्ट, जिसका मालिक दुनिया का सबसे अमीर पूंजीपति जेफ बेजोस है, ने लिखा है युद्ध सच में पूंजीपतियों, सभी शासकों को सुरक्षित व धनी बनाते हैं. यूक्रेन में युद्ध की बैचेनी को इस लेख से समझा जा सकता है कि यह किसके लिए जरूरी है. नागरिक तो पूछ ही रहे हैं कि वास्तव में जंग किनकी जरूरत है. यूक्रेन के बहाने कौन है, जो एक बार फिर दुनिया में विश्वयुद्ध की आहट से दहशत मचाए हुए है. कॉरपारेट नियंत्रित मीडिया हो या जंग से विश्वशक्ति बने देश सभी युद्ध की गरिमा, युद्धोन्मादी फोबिया से भरे पड़े हैं. इस समय मीडिया का बड़ा हिस्सा इसी युद्धोन्माद को पैदा करने में लगा हुआ है, जैसा कि इराक के समय हुआ था या फिर अफगानिस्तान के मामले में. क्या दुनिया का कोई में तथ्यपरक और मानवतावादी पत्रकार दावा कर सकता है कि इराक,इरान,सीरिया और अफागानिस्तान में विध्वंसक युद्धों के बाद शांति स्थापित हो गयी! यदि ऐसा नहीं हुआ, तो यूक्रेन के संभावित युद्ध से होने वाले विध्वंस की जबावदेही किसकी होगी. राहत की हल्की सी चिंगारी इस खबर ने दी है कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन रूस के राष्ट्रपति वाल्दिमीर पुतिन से बातचीत के लिए तैयार हो गए हैं. खबर है कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने दोनों देशों के राष्ट्रपति को समिट में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया है. समिट का विषय यूक्रेन संकट ही है. व्हाइट हाउस से जारी बयान में कहा गया है, "हम डिप्लोमेसी के लिए हमेशा तैयार हैं.`` लेकिन शर्त यह है कि रूस आक्रमण नहीं करने की बात कहे. अमेरिका ने यह भी कहा है कि अगर रूस, युद्ध का चयन करता है, इसके तीव्र और गंभीर परिणाम के लिए भी उसे तैयार रहना चाहिए." दरअसल बाइडेन,मेक्रो या पुतिन के लिए बातचीत इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि तमाम तनाव की खबरों के बावजूद सूचना है कि युद्धोन्माद फैलाने की तमाम कोशिशों के बावजूद अमेरिका, रूस, यूक्रेन, यूरोप कहीं की भी जनता युद्ध के लिए पागल नजर नहीं आ रही. इसका एक बड़ा कारण तो दूसरे महायुद्ध की विभीषिका ही है, जिसमें यूरोप के हर परिवार का कम से कम एक सदस्य की जान गयी थी. अमेरिका को तब उतना नुकसान तो नहीं उठाना पड़ा, लेकिन इराक और अफगानिस्तान में हुई जानमाल की क्षति ने वहां सत्ता परिवर्तन को आसान कर दिया. बाइडेन इस इतिहास से परिचित हैं कि इराक युद्ध के बाद भी सीनियर बुश को पराजय का सामना करना पड़ा था और ब्रिटेन में टोनी ब्लेयर तो इतिहास के विषय बना दिए गए. सोशल मीडिया के अनुसार, यूरोप के लोगों के बड़े हिस्से को अपनी ही सरकारों की मंशा पर ही शक बढ़ता जा रहा है. रूस में हुए सर्वे तो 75-80% जनता युद्ध के लिए अनिच्छुक है. यूरोप अखबारों में छपा है कि रूसी अवाम में युद्ध अत्यंत अलोकप्रिय है. यूक्रेन में रूस से नफरत व आम लोगों को हथियार चलाना सीखने के कितने भी वीडियो वायरल होने के बावजूद कुछ सर्वे बता रहे हैं कि पश्चिमी यूक्रेन में भी 45-50% लोग रूस से जंग नहीं चाहते. पूर्वी इलाके में तो वैसे ही रूसी भाषी आबादी अधिक है. स्थापित नेताओं के मुकाबले कॉमेडियन रहे जेलेंस्की को जब राष्ट्रपति का चुनाव जीते थे, तब उनका प्रमुख नारा था शांति स्थापना. जेलेंस्की की युद्ध को लेकर दुविधा भी अमेरिका और यूरोप के अखबारों में छपती रही है. तो क्या बाइडेन और पुतिन की वार्ता करवा कर मेक्रों एक लगभग संभावित और हथियार के उत्पादकों और सौदागरों के लिए जरूरी युद्ध को टलवाने में कामयाब होंगे. इस संदर्भ में लंदन से प्रकाशित दैनिक द गार्डियन ने लिखा है ``राजनयिक प्रकाश की किरण तब आयी जब पुतिन ने रविवार की सुबह अपने पसंदीदा पश्चिमी वार्ताकार मैक्रों के साथ फोन पर बात की और मोटे तौर पर क्रेमलिन ने इसकी पुष्टि भी कर दी. संभव है कि पुतिन पूर्ण आक्रमण के कगार से पीछे हटने के लिए तैयार हो सकते हैं. यूक्रेन नए सिरे से राजनयिक चर्चा की अनुमति देगा.` गार्डियन लिखता है कि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो इसे फ्रांस के एक छल के बतौर भविष्य पेश किया जाएगा. पहले अमेरिका और यूरोप की मीडिया में कहा गया कि 72 घंटे में रूस आक्रमण कर देगा. लेकिन 72 घंटे कब के बीत चुके हैं, अभी तक युद्ध मीडिया की संभावनाओं में ही है. कूटनीति के जिस दरवाजे के खुलने की संभावना बन रही है, यह यूरोप,अमेरिका यूक्रेन और रूस सब के लिए जरूरी है. युद्धविरोधी यूरोप के नागरिक अफगानिस्तान और इराक की याद दिला रहे हैं. अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो के सैनिकों की 20 साल की मौजूदगी के बावजूद के इस देश में भूख,मानवाधिकार, लोकतंत्र,महिला आजादी एक भयावह संकट से गुजर रहा है. श्लयु; सरदारों के हाथों सौंप दिए गए अफगानिस्तान की जनता की रक्षा करने में पहले 20 साल सोवियत सैनिक और बाद के 20 सालों तक अमेरिका और उसके संगठन नाटो के सैनिक हजारों युद्ध हत्याओं के बावजूद विफल रहे. बेबिलोन की महान सभ्यता और इतिहास वाले इराक को आज जिस त्रासद वर्तमान में जीना पड़ रहा है, उसकी जबावदेही उन्हीं युद्धों को है, जो हथियारों के बाजार,सौदागर,उत्पादक और उनके संरक्षक नेताओं के मेलजोल से पैदा होते हैं. [wpse_comments_template]

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