Search

युद्ध लड़ा नहीं, थोपा जाता है

Nishikant Thakur

युद्ध लड़ा नहीं जाता थोपा जाता है. भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में हमेशा युद्ध थोपा ही गया है. इतिहास गवाह है कि विश्व के कई बलशाली देशों द्वारा कमजोर देशों पर आज तक युद्ध थोपा ही गया है. आदिकाल का युद्ध तलवारों और तीर-कमानों से आमने-सामने लड़ा जाता था, लेकिन अब ऐसी बात नहीं है. इसके लिए यह उदाहरण उचित नहीं लगता कि आज विश्व इतना विकसित हो गया है कि अपने ही देश के किसी स्थान पर बैठकर एक दूसरे देश को खत्म कर सकता है. जो बलशाली होता है जय-जयकार उसी की होती है. 

 

वियतनाम एक छोटा देश है, लकिन बीस वर्षों तक अमेरिका से युद्ध करता रहा. जापान के कई  जीवंत शहरों (हिरोशिमा और नागासाकी) को अमेरिका ने ही खत्म किया था. इजराइल-फिलिपीन, इजराइल-ईरान के युद्ध में भी अमेरिका परोक्ष रूप से जुड़ा रहा है. अब वही काम रूस-यूक्रेन यद्ध के दौरान कर रहा है. वर्षों से जारी इस युद्ध में उसी की जीत होगी, जो शक्तिशाली साबित होगा और जो विश्व को अपनी शक्ति प्रदर्शन से अपना लोहा मनवाएगा. वियतनाम और जापान ने अपनी एकता और मजबूत कर्मठता से विकसित कर लिया. देखना है कि रूस-यूक्रेन में कौन जीत का सेहरा अपने सर बंधवाता है. प्रश्न यह है कि आखिर युद्ध थोपा और लड़ा क्यों जाता है? 

 

रूस-यूक्रेन युद्ध की बात करें, तो वह तात्कालिक सोवियत संघ से ही अलग हुआ एक देश है, जो अपने को किसी भी तरह रूस से कम नहीं आंकता. उसका कारण भी अमरीकी नीति ही माना जाता है. अब तो खुलकर यह बात सामने आई है कि अपनी ताकत और अस्त्र-शस्त्र के बल पर अमेरिका बुरी तरह विश्व पर हावी हो रहा है यहां तक कि भारतवर्ष को भी वह अब डराने लगा है. 


अभी की ही स्थिति को देखें, तो वह भारत को अस्थिर करने में लग गया है. चूंकि, मामला भारत को आर्थिक रूप से कमजोर करने का है, इसलिए भारत को बहुत ही गंभीरतापूर्वक इस पर विचार करना पड़ेगा. ऐसा इसलिए कि भारत अपना निर्यात करोड़ों नहीं अरबों में करता है, जिसका असर अब देश के उन उद्योगों पर पड़ना शुरू हो गया है, जो अपना व्यापार अमेरिका के साथ कर रहे थे और जिनमें लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है. लेकिन आज वे उद्योग धीरे-धीरे बंद होने लगे हैं. वहां के कर्मचारी बेरोजगार होते जा रहे हैं. विदेशी व्यापार पर अपना अध्ययन करने वाले कहते हैं कि इसका असर भारत पर ही नहीं, बल्कि वहां उनसे जुड़े भारतीयों पर भी पड़ेगा और जो लाखों लोग ऐसी संस्थाओं से जुड़े हैं, उनकी वापसी होने जा रही है. यह किस तरह का कानून है? 

 

वैसे सच यह भी है कि जहां भारत अपने निर्यात की जानेवाली वस्तुओं पर तीन प्रतिशत का निर्यात शुल्क अमेरिका को देकर अपना कारोबार करता रहा है, लेकिन अब उसे 50 प्रतिशत निर्यात शुल्क देना पड़ेगा. इस भारी-भरकम निर्यात शुल्क पर राष्ट्रीय स्तर पर घमासान मचा हुआ है.वहीं दोनों तरफ से लाखों बेरोजगार होने जा रहे हैं. वैसे इस भयावह स्थिति का प्रतिकार करने के लिए सरकार प्रयासरत तो है ही, लेकिन कहीं ऐसा न हो कि भारत के लाखों लोग बेरोजगार हो जाएं, उसके बाद आयात-निर्यात शुल्क पर कोई समझौता हो जाए.

 

दूसरी ओर जो दुखद है, वह यह कि रूस-यूक्रेन युद्ध को कैसे रोका जाए. इसके लिए विश्व तो चिंतित है ही, लेकिन भारत पर यह दबाव भी डाला जा रहा है कि वह अपने कच्चे तेल का आयात रूस से करना बंद कर दे. यह भी भारत की आर्थिक स्थिति को कमजोर करने की अमेरिका की कूटनीति है. ध्यान रखने की बात यह है कि भारत का रूस के साथ यह समझौता वर्ष 1969 में तत्कालीन विदेश मंत्री डॉ. सरदार स्वर्ण सिंह ने किया था. उस समझौते में तय किया गया था कि भारत हर तरह से रूस की सहायता करेगा और रूस भी भारत के साथ मित्रता बनाए रखेगा, सदा एक दूसरे का साथ देगा. 

 

ज्ञात हो कि इसी समझौते के तहत जब वर्ष 1971 में बांग्ला देश पश्चिमी पाकिस्तान की तानाशाही से युद्ध कर रहा था, वहीं बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) की क्रांति लिए वहां के नेताओं ने भारत से मदद की गुहार लगाई जिसकी मदद के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपनी सेनाओं को बांग्लादेश की मदद के उद्देश्य से भेजा. उस घनघोर युद्ध में पाकिस्तान की ओर से अमेरिका ने अपना युद्ध पोत का बेड़ा सात भेजा. वहीं रूस भारत का पक्ष लेते हुए अपना युद्ध पोत आठ भेजा, जिसके कारण अमेरिकी युद्ध पोत को वापस लौटना पड़ा. यह रूस की भारत के प्रति मित्रता का उदाहरण है. अब अमेरिका उसी रूस से अपना संबंध तोड़ने के लिए दबाव डाल रहा है. यह कैसी तानाशाही? क्या भारत अमेरिकी दबाव में अपने वर्षों के संबंध खत्म कर ले?

 

"एक पर हमला सभी पर हमला है" के सिद्धांत पर आधारित एक गठबंधन है जिसे "नाटो" (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) कहा जाता है. इस संगठन में अमेरिका सहित 32 देश शामिल हैं. इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स (बेल्जियम) है. यह संगठन लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने के साथ सदस्य देशों की स्वतंत्रता और सुरक्षा की रक्षा करता है तथा संगठनों का प्रबंधन करता है. इसका गठन 1949 में वॉशिंगटन में हुआ था, जिसे वाशिंगटन संधि के नाम से भी जाना जाता है. महासचिव नाटो का सर्वोच्च प्रतिनिधि होता है. अक्टूबर 2024 तक नीदरलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री मार्क रूटे इस संगठन के महासचिव हैं. उन्हें नाटो सदस्यों द्वारा चार साल के लिए नियुक्त किया गया है जिनके कार्यकाल को बढ़ाया भी जा सकता है. "नाटो" का उल्लेख यहां इसलिए कि रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध खत्म हो.  

 

अतः नाटो सहित विश्व के कई देशों ने  दोनों देशों से समझौते की पेशकश की थी,लेकिन रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने इस युद्ध को रोकने से साफ इनकार कर दियाऔर कहा कि यदि विश्व का कोई देश या संगठन, जो यूक्रेन का साथ देता है, उसका पक्षधर है, वह रूस से युद्ध के लिए तैयार रहे. राष्ट्रपति पुतिन की इस चेतावनी के बाद अब सरेआम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के व्यापार एवं विनिर्माण के वरिष्ठ सलाहकार पीटर नोवारो ने रूस-यूक्रेन युद्ध को "मोदी का युद्ध" करार दिया है और कहा है कि शांति का मार्ग आंशिक रूप से दिल्ली से होकर जाता है. निवारो ने एक साक्षात्कार में दावा किया है कि रूस की युद्ध मशीन को भारत मदद पहुंचा रहा है, भारत जो कुछ कर रह है, उसके कारण अमेरिका में हर कोई हार रहा है. 


नवारो का कहना है कि भारत छूट पर रूसी तेल खरीदता है और फिर भारतीय रिफाइनर, रूसी रिफाइनरों के साथ साझेदारी में इसे बाकी दुनिया को लाभ पर बेचते हैं. रूस इस पैसे का इस्तेमाल अपनी युद्ध मशीन को चलाने में और यूक्रेनियन को मारने में करता है. ऐसी स्थिति में प्रश्न यह है कि भारत आखिर क्या करे? अब तक जो जानकारी मिल रही है, वह यह है कि इस युद्ध में यूक्रेन बुरी तरह तबाह हो चुका है, लेकिन यूक्रेनी राष्ट्रपति ब्लादिमीर जेलेंस्की और रूसी राष्ट्रपति पुतिन किसी समझौते को स्वीकार नहीं कर रहे हैं. 

 

ऐसी स्थिति में भारत करे तो क्या! वैसे इसका निर्णय तो भारतीय सर्वोच्च पद पर बैठे राजनेताओं को ही लेना होगा, जो देश के लिए हितकारी हो. अमेरिका किसी न किसी रूप में चाहता है कि भारत युद्ध की विभीषिका में कुदकर शामिल हो जाए. इसलिए कहा गया है कि विश्व में कहीं युद्ध लड़ा नहीं थोपा जाता है. अतः अमेरिका किसी न किसी रूप में भारत पर दबाव बना रहा है कि भारत डरे और सस्ते तेल की खरीद बंद करके महंगाई बढ़ाकर उसे कोई कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर कर दे.

 

 

डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये इनके निजी विचार हैं.

Comments

Leave a Comment

Follow us on WhatsApp