Shyam Kishore Choubey
रांची की विधानसभा हो कि दिल्ली की संसद. दोनों ही अपनी लोकशाही की सबसे अहम पंचायतों में शुमार हैं. तीन-सवा तीन साल पहले दोनों महापंचायतों पर काबिज डबल इंजन की सरकार में से एक इंजन को बेपटरी कर अलग-अलग इंजनों की सरकारें कायम हो गईं. दिल्ली में जो हुकूमत चला रहे हैं, उनके कुल-गोत्र के महानुभाव अब रांची में अपोजिशन की लाइन में आकर ललकार रहे हैं. ठीक ऐसे ही रांची में जो हुकूमत चला रहे हैं, उनके कुल-गोत्र के महानुभाव दिल्ली में ललकार रहे हैं. बेशक दोनों के मसले अलग-अलग हैं, लेकिन ललकारने का तौर-तरीका एक ही दिखा. दिल्ली की संसद में पूरे मुल्क का बजट पेश किया गया, जबकि रांची में छौने से झारखंड का. वहां भी बहुमत की सरकार ने अपने दम पर बजट पास करा लिया, यहां भी. वहां भी नारेबाजी और वाक-आउट. यहां भी वही हाल रहा. वहां राष्ट्र-राष्ट्र गूंजता रहा, यहां राज्य-राज्य.
संसद वाले महानुभाव हों कि विधानसभा वाले. दोनों ही अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार राष्ट्र/राज्य की सेवा के नाम वोट लेकर गए हैं. हुकूमती हों कि अपोजिशन वाले, सबकी चिंता राष्ट्र/राज्य ही है. सबके सपने में बपुरी जनता रूपी जनार्दन समाया हुआ है. इसी चिंता में घनघोर रूप से डूबे हुए वे एक-दूसरे की चलने नहीं देना चाहते. बेचारा ‘जनार्दन’ अखबारों/टीवी के जरिए आधा-अधूरा देख-सुन-पढ़कर ‘अति आनंद उमगि अनुरागा’ की स्थिति में है, बस अब तो कल्याण होने ही वाला है.
जो लोग अधिक समझदार हैं, वे सवाल उठा सकते हैं. रांची में जो एक-रंगा वस्त्र धारण किया गया और दिल्ली में जो एक-रंगा पहना गया, दोनों के रंग में अंतर था. यहां एक-रंगिए गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहे थे, ‘फर्जी है 60-40, नाय चलतो’. उनकी चिंता में खतियानी स्थानीयता भी थी. इसी कारण वे ही नहीं, उनकी टी-शर्ट भी पूछ रही थी, 1932 की भैलो. दिल्ली में पहले तो एक तरफ से आवाजें आ रही थीं, अदानी मामले में जेपीसी चाहिए तो उससे भी ऊंची आवाज में हुकूमती उछाल रहे थे, राहुल बाबा ब्रिटेन में अपनी बोली-वाणी के लिए माफी मांगें. तबतक बोली-ठिबोली को ही लेकर 23-24 मार्च को राहुल बाबा की सांसदी चली गई, इसलिए उनके चाहनेवालों ने एक-रंगा धारण कर लिया. यानी रांची हो कि दिल्ली हिंदुस्तानी सियासत में अवसर ही असल वाद है, बाकी सब विवाद.
एक और दिलचस्प और हैरानीखेज बात, रांची हो कि दिल्ली या पटना, जो नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे घूम-घूमकर वोट मांगते फिरते हैं, वे वोट मिलने पर इतने बड़े दानी-ज्ञानी बन जाते हैं कि कहते नहीं थकते, हमने अवाम को ये दिया, तो वो दिया. वे कभी भूलकर भी नहीं कहते कि अवाम के खून-पसीने के कमाई से चलनेवाली असेंबलियों और पार्लियामेंट को हमने अपने अहं और वहम के लिए अखाड़ा बना दिया. इनकी मीटिंगों पर खर्च होनेवाले लाखों-करोड़ों हम अपनी-अपनी जिद के लिए बर्बाद कर देते हैं. करोड़ों-अरबों लोगों को मिल्लत और भाईचारे से रहने की नसीहतें देनेवाले गिनती के ये महानुभाव खुद एक-दूसरे की टांग खिंचाई में बेचैन रहते हैं. है न असल राजनीति! खुद तो लड़ते-झगड़ते रहें, दूसरों को भाईचारे की नसीहतें दें. हमारी नसीहत तो यह कि वे जिस संविधान की शपथ लेते हैं, उसे पढ़ें भी तो सही. जनार्दन से वोट लेकर उसे जनता रहने को विवश करनेवाले खुद जनार्दन की भूमिका में आ जाएं तो जो हो सकता है, वही अपने प्यारे झारखंड और भारत में हो रहा है. ट्रेजरी और अपोजिशन बेंच एक-दूसरे को मात देने में जुट गए हैं. फैसला हो जाने पर अवाम की भी सोच लेंगे, हालांकि फैसला होगा नहीं.
बेचारी जनता राजनीति की चक्की में पिस रही है. वह बखूबी जानती है कि जैसे खून का रंग एक ही होता है, वैसे ही राजनीति का भी रंग एक ही होता है. शासन का नेचर भी एक ही होता है, केवल सिग्नेचर बदल जाता है. रांची हो कि दिल्ली, राजनीति का तौर-तरीका भारत की सांस्कृतिक एकता की तरह झंडों के अलग-अलग रंग, राजनेताओं की अलग-अलग वेश-भूषा, अलग-अलग जुबान, अलग-अलग खान-पान, अलग-अलग रहन-सहन के बावजूद एक ही नजर आता है. यह सब जानने और बार-बार समझने के बावजूद वह, ‘शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं’ रटती है, लेकिन ऐन वक्त पर माया-जाल में फंस ही जाती है. करे भी क्या, अजीब इंद्रजाल तैयार हो गया है. सभी दल दलदल बन गए हैं. जो कल तक इधर थे, पलक झपकते उधर वाले हो जाते हैं. किसी को भी झंडा और टोपी और तथाकथित विचारधारा बदलने में वक्त नहीं लगता.
वे अजीब मौसम विज्ञानी हो गए हैं. फिर लोभ-लालच भी है, मुफ्तखोरी भी है. ऐसे दाने-दुनके रीढ़ विहीन, सोच विहीन मानस तैयार कर रहे हैं. तुम साधन तैयार करो, साध्य हम खोज लेंगे, जैसा पाठ पढ़ाया ही नहीं जाता. मौका तक नहीं दिया जाता. अवाम को समझदार बताकर झांसे में रखने के तिलिस्म से उबार कर बिना किसी प्रचार के चुनाव का समय आ गया है. जनमानस समझदार है तो उसकी समझ पर भरोसा करते हुए छोड़ दिया जाना चाहिए. वह चाहे जिसे चुन ले. समझदारों को समझाना कैसा? नासमझों को भी समझाना कैसा? जबकि तिलिस्मी राजनीति में जाति, धर्म, हेट स्पीच, पैसा, प्रभाव आदि भांति-भांति के पांसे कमाल का काम कर जाते हैं…. और हम वही पेट भर अनाज आदि पर कुर्बान हो जाते हैं.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.