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सुप्रीम कोर्ट की दो टूक राय के आगे क्या

सुप्रीम कोर्ट की फाइल फोटो

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बैजनाथ मिश्र

इसी साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के पीठ ने फैसला दिया था कि यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति विधानसभा से पारित विधेयकों पर तीन महीने के अंदर स्वीकृति नहीं देते हैं तो वे विधेयक स्वतः लागू हो जायेंगे. इस फैसले के कारण तमिलनाडु के दस विधेयक बिना राज्यपाल की अनुमति के कानून बन गये. सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दिया था. इस अनुच्छेद के अनुसार सुप्रीम कोर्ट अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो. लेकिन इस अनुच्छेद के तहत सुप्रीम कोर्ट से पारित आदेश के बाद कोलाहल का वातावरण उत्पन्न हो गया.

 

इस कोलाहल का पहला कारण यह था कि उपर्युक्त फैसला संविधान प्रदत्त शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ था. यानी यह न्यायपालिका का विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में प्रामाणिक हस्तक्षेप था. दूसरा यह कि यह राज्यपालों के कामकाज में भी अनावश्यक हस्तक्षेप था. तीसरा यह फैसला एक तरह से संविधान संशोधन था, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 200 में राज्यपालों के लिए लिखित "यथाशीघ्र" को जजों ने समय सीमा में बांध दिया था. इस तरह का कोई भी बदलाव केवल संसद कर सकती है, न्यायपालिका नहीं. चौथा यह कि यदि कानून बन गये तमिलनाडु के दस विधेयकों में कोई त्रुटि पायी गयी तो उसकी समीक्षा सुप्रीम कोर्ट कैसे कर सकेगा जब उसी के आदेश से विधेयक कानून बने हैं. शायद यही कारण है कि पूर्व उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ बिफर पड़े थे. उन्होंने अनुच्छेद 142 के दुरुपयोग को परमाणु मिसाइल की तरह खतरनाक बताया था और कहा था कि जज सुपर संसद की तरह काम कर रहे हैं जो संविधान के मूल ढ़ांचे के खिलाफ है.

 

केंद्र सरकार चाहती तो वह इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकती थी. लेकिन उसने राष्ट्रपति के माध्यम से अनुच्छेद 143 के तहत चौदह सवालों पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांग ली. अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति को दो तरह के मामलों में राय मांगने का अधिकार है. पहला किसी कानूनी विवाद या तथ्यात्मक सवाल या किसी नये कानून बनाने से पहले उसकी संवैधानिकता का मामला हो और दूसरा संविधान लागू होने से पहले कोई संधि, समझौता या दस्तावेज से जुड़ा मामला हो. सुप्रीम कोर्ट चाहता तो वह इस मामले में राष्ट्रपति को राय देने से इनकार कर सकता था या मौन साध सकता था. ऐसा पहले कई प्रकरणों में हो चुका है. राय देने के लिए सुप्रीम कोर्ट को बाध्य नहीं किया जा सकता. लेकिन उसने राय देना स्वीकार किया तो शायद इसलिए कि उसे लग रहा था कि फैसले में भारी चूक हुई है और लक्ष्मण रेखा लांघी गयी है. इसलिए जस्टिस बीआर गवई (मुख्य न्यायधीश के पद से अब सेवानिवृत्त) के नेतृत्व में पांच जजों की एक संवैधानिक बेंच गठित की गयी. लंबी सुनवाई के बाद बेंच ने फैसला दे दिया है.

 

बेंच का कहना है कि विधानसभाओं से पारित विधेयकों को राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी के बगैर जजों के आदेश से स्वतः स्वीकृत करना संविधान में किये गये शक्तियों के बंटवारे के खिलाफ है. यह भी कि अनुच्छेद 142 के तहत मिली असाधारण शक्तियों के बेजा इस्तेमाल से राज्यपालों के कामकाज में अतिक्रमण नहीं किया जा सकता. लेकिन राज्यपालों को विधेयकों को बेमुद्दत लटकाये रखने की ताकत देना संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ होगा. बावजूद इसके अनुच्छेद 200 में उल्लिखित "यथाशीघ्र" को समय सीमा में बांधने का हक जजों को नहीं है. इसके लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता होगी और यह दायित्व संसद का है. बावजूद इसके यदि राज्यपाल लंबे समय तक विधेयकों को लटकाये रखते हैं तो राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है. लेकिन राष्ट्रपति या राज्यपालों की विधेयकों के बारे में की गयी कार्रवाई न्यायिक समीक्षा के दायरे से परे होगी. न्यायिक समीक्षा तभी हो सकती है जब विधेयक कानून की शक्ल ले ले.

 

अब सवाल यह है कि संविधान पीठ की इस राय के बाद क्या अप्रैल में दिया गया दो जजों का फैसला अमान्य या निरस्त हो जायेगा? नहीं, क्योंकि 1974 में सुप्रीम कोर्ट का संविधान पीठ संत जेवियर्स कॉलेज, अहमदाबाद मामले में कह चुका है कि अनुच्छेद 143 के तहत दी गयी राय सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक फैसलों की तरह बाध्यकारी नहीं है. यानी राय केवल राय होती है, फैसला नहीं और अप्रैल में दिया गया फैसला अभी अपरिवर्तनीय है. अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट की ताजा राय के आधार पर अप्रैल में दिये गये फैसले में बदलाव के लिए पुनर्विचार याचिका दाखिल की जा सकती है और इसके लिए संविधान पीठ की बड़ी बेंच में सुनवाई का आग्रह किया जा सकता है.

 

केंद्र आगे क्या करेगा, पता नहीं, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि मनोनीत राज्यपाल चुनी हुई सरकारों को इरादतन क्या इसीलिए परेशान करते हैं क्योंकि वे स्वयं को केंद्र का बेहतर एजेंट साबित करना चाहते हैं. अमूमन ऐसे टकराव केंद्र के विपक्ष वाली राज्य सरकारों के साथ ही होता है जो इस बात का घोतक है कि केंद्र अपनी मर्जी से विपक्षी राज्य सरकारों को हांकना, परेशान करना या नचाना चाहता है. कांग्रेस के जमाने में तो राज्यपाल खुदमुख्तार जैसे थे. केंद्र का इशारा मिलते ही राज्यपाल राज्य सरकारों की बर्खास्तगी और राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर देते थे. कुछ राज्यपाल तो बेशर्मी की हद तक जाकर अपने आकाओं के प्रति वफादारी निभा चुके हैं. इनमें अव्वल नंबर पर संयुक्त आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश के गवर्नर क्रमशः रामलाल और रोमेश भंडारी हैं. सही है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन नहीं लगा है, लेकिन इनके राज्यपालों ने भी पंजाब, बंगाल और तमिलनाडु में कम कमाल नहीं किया है.

 

राज्यपालों की किसिम-किसिम की कारस्तानियों के कारण ही जनता के बीच यह सवाल भी कौंधता रहता है कि राज्यपालों यानी लाट साहबों की जरुरत ही क्या है? ये आखिर ऐसा कौन सा विधायी कार्य करते हैं जो राज्यों के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश नहीं कर सकते? राजभवनों को अमूमन निष्प्राण, बेकार हो चुके नेताओं का आश्रय स्थल बना दिया गया है. कहीं-कहीं पसंदीदा रिटायर नौकरशाह, हाकिम या मिलिट्री अफसर भी भेज दिये जाते हैं. इनकी नियुक्ति चूंकि केंद्र की हुकूमत करती है, इसलिए ये करते वही हैं जो केंद्र चाहता है. राजभवनों में लाट साहबी अंदाज है, फिजूलखर्ची है, जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये हर महीने खर्च होते हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल शिद्दत से इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं करता है. शायद इस उम्मीद में कि कभी उसे भी अपने लोगों को लाट साहब बनाने का मौका मिल सकता है. लेकिन दुनिया बदल रही है. लोग चांद पर बसने जा रहे हैं. ऐसे में राजभवनों की भूमिका, उनकी आवश्यकता और उन पर हो रहे खर्चों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है.

 

बहरहाल देखना है कि सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ की राय के बाद केंद्र कुछ करता भी है या मौन साध लेता है. साथ ही क्या दोनों जज संविधान पीठ की राय के बाद अपने अन्तर्मन में झांकेंगे जिनका फैसला लक्ष्मण रेखा लांघ गया है? 

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