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वायदे हैं वायदों का क्या.. समझने की भूल सियासी हाराकिरी का सबब भी बन सकता है

Faisal Anurag मतदाता बार बार निराशा के गर्त में धकेल दिए जाने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं. चुनावी वायदों  का हश्र नाउम्मीदी पैदा करता है. त्रासदी तो यह है कि इस नाउम्मीदी की परवाह न तो सत्तापक्ष को होता है और न ही विपक्ष को. भारत के ज्यादातर राजनैतिक दल सत्ता हासिल करते ही वही भाषा और शब्द बोलने लगते हैं जो उनके पूर्ववर्ती बोल कर सत्ता से बेदखल हुए. झारखंड में खतियान और स्थानीयता आधारित नियोजन नीति के सवाल पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेने के इस कथन के बाद कि नियोजन नीति का आधार खतियान नहीं हो सकता क्योंकि अगर ऐसा कानून बनाया गया तो अदालत में वह टिक नहीं सकता. पिछले 22 सालों से झारखंड के लिए स्थानीयता की परिभाषा का सवाल यक्षप्रश्न बन कर खड़ा है. चुनावों में यह सवाल जोरशोर से उठाया जाता है, लेकिन चुनाव बाद पांच साल तक राजनैतिक दल इस सवाल पर न तो बहस करते हैं और न ही ठोस कदम उठाने का इरादा दिखाते हैं. लेकिन पिछले कुछ महीनों से जिस तरह के आंदोलन का माहौल बना हुआ है, उसे ज्यादा देर तक नजरअंदाज करना राजनैतिक हाराकिरी का सबब बन सकता है.सियासी हराकिरी के संकेत के बावजूद इतिहास साक्षी है कि सत्ता में बैठे शासकों ने उसकी परवाह नहीं की है. सियासी तौर पर नजरअंदाज करने और लोगों में बदलाव की दुर्निवार आशा को धुंध में डालना एक सर्वमान्य प्रवृति का हिस्सा है. दरअसल जरूरी सवालों को लेकर होने वाले जनांदोलनों की राजनैतिक सीमा यह है कि वह एकांगी तरीके से ही लोगों का प्रशिक्षण और राजनैतिक सशक्तीकरण करने में सफल नहीं हो पाते हैं.यही कारण है कि किसी भी सरकार की नीतियों के खिलाफ साढ़े चार तक विरोध करने वाले समूह के सदस्य भी सत्ता पक्ष के बहकावे के बारबार शिकार हो जाते हैं और नयी उम्मीद पाल लेते हैं. चूंकि इसकी नजीर अपवाद ही है जब कोई सरकार नीतियों के कारण हार गयी हो. भारत का वोट पैटर्न ऐसा बन गया है कि वोटरों से किए गए वायदे के साथ वादाखिलाफी के बावजूद नेता चुनाव कम ही हारते हैं. वोट के समाजिक आधार में जिस तरह जाति,धर्म और भावना हावी है नेताओं को वायदों की परवाह नहीं रहेगी. भाकपा माले के विधायक विनोद सिंह के अनुसार खतियान आधारित और भाषा के सवाल को लेकर सर्वदलीय बैठक के जरिए सरकार को गतिरोध को तोड़ना चाहिए. उसे आंदोलनकारियों से बातचीत कर मामले का समाधान निकालना चाहिये. समय रहते सरकार इस मामले पर पहल नहीं की तो गतिरोध और पेचीदा होगा. उन्होंने कहा कि भाकपा माले 1932 का खतियान या राज्य में हुए अंतिम सर्वे आधारित स्थानीयता नीति के पक्ष में है और स्थानीयता को ही नियोजन का आधार बनाया जाना चाहिए. हेमंत सरकार के गठन के समय से ही रघुवर सरकार की स्थानीयता एवं भाषा नीति को वापस लेने की मांग भाकपा-माले करती रही है. रघुवर सरकार द्वारा स्थापित इन नीतियों को पार्टी ने हमेशा झारखंड विरोधी करार दिया है. भाकपा माले नेताओं ने इन नीतियों को हेमंत सरकार द्वारा जारी रखे जाने पर तीखी आलोचना की है. इसे झारखंडी जन भावना से खिलवाड़ कहा है.इसी तरह की प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर खतियान आधारित नियोजन नीति के लिए आंदोलनरत समूह भी कर रहे हैं. दरअसल झारखंड के इस जनउभार को हल्के में लेने की भूल नहीं की जानी चाहिए. चूंकि अतीत में भी स्थानीयता का सवाल तनाव का कारण बनते रहे हैं. वकत है कि इसके लिए सभी स्टेक होल्डर को वार्ता के टेबल पर लाया जाए और सहमति के प्रयास तेज किए जाएं. किसानों के आंदोलन इतिहास में मील का पत्थर बनने के बावजूद अराजनैतिक पक्ष न लेने के कारण वह वोटरों की दिशा तय नहीं कर पायी. लेकिन इसे उदाहरण समझ झारखंड के आंदोलनों के साथ उसी तरह का व्यवहार करना किसी सियासी हाराकिरी से कम नहीं होगा. चूंकि झारखंड में विपक्ष में बैठी भारतीय जनता पार्टी के लिए भी खतियान आधारित नियोजन नीति के पक्ष में खड़ा होना आसान नहीं है क्योंकि उसके कारण वोट के नजरिए से यह मेल नहीं खाता है. ऐसे में झारखंड के लोगों के नजरिए से एक नियोजन नीति की जरूरत को देर तक टालना लोगों के लोकतांत्रित तौर तरीकों को भी नुकसान पहुंचा सकता है. यह सोचने की प्रवृति से बाज आना चाहिए कि वायदे हैं वायदे का क्या ! आंदोलनों के राजनैतिक स्वर और दीवाल पर लिखी इबारत तो कुछ और ही संकेत दे रही है. वैसे भी चुनाव घोषणापत्र रस्मी हो कर रह गये हैं. इस रीति को तोड़ कर उसे हकीकत में बदलने के युवा इरादों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. [wpse_comments_template]

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