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LOP होने का मतलब क्या है!

Manish Singh

व्हाट इट मीन्स टू बी LOP.  नेता विपक्ष का मतलब क्या है? सदन में खड़ा वह नेता, जिसे बहुमत नहीं मिला? इतना ही? असल में तो अब इसका मतलब यही रह गया है. पर कॉन्स्टिट्यूशन क्या कहता है? कहता है- संसद सुप्रीम है. देश को सरकार नहीं चलाती. राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नहीं चलाता. संसद चलाती है. संसद का मतलब- लोकसभा+ राज्यसभा+ राष्ट्रपति.

 

लोकसभा सीधे जनता के वोट से बनती है. सभी दल अपने कैंडिडेट देते हैं. लोग निर्दलीय भी लड़ सकते हैं. नियम है- फर्स्ट पास्ट द पोस्ट. जिसके दल के कम सांसद हों, वह विपक्ष में बैठता है. अमूमन इससे सब वाकिफ है.

 

राज्यसभा, राज्यों की सभा है. इसके द्वारा हर राज्य को अतिरिक्त सांसद दिये जाते हैं. पर इसका उद्देश्य क्या है? दरअसल, लोकतंत्र के इस मंदिर का सिस्टम तैयार करने वाले संविधान निर्माताओं की मंशा राज्यसभा के गठन से समझ में आती है.

 

ताजा उदाहरण लीजिये, बीजेपी ने ओडिशा में लोकसभा की लगभग सारी सीटें जीत लीं. जनता को तो क्षेत्र से प्रतिनिधि मिले. लेकिन, फर्स्ट पास्ट द पोस्ट की वजह से, एक ही विचार वाले जीतकर आये. पर दूसरा विचार, दूसरा दल भी है. BJD है, उस विचार के समर्थक भी बड़ी मात्रा में हैं. उनकी आवाज संसद नहीं जा सकी. तो राज्यसभा उन्हें आवाज मुहैया कराती है. तो बीजेडी अपने 65 विधायक के अनुपात में कुछ सांसद, राज्यसभा के रास्ते भेज सकेगी. किसी के पास, तेलंगाना में महज 15-20 विधायक है, तो भी एक आवाज तो उसकी संसद में जायेगी.

 

तो व्यवस्था बनाने वाले चाहते थे कि सूक्ष्म सी आवाज देश की नीति निर्धारक बॉडी में पहुंचे. और सुनी भी जाये. सुना जाना, प्रश्न, विमर्श, एंहांसमेंट, करेक्शन, सहमति- संसद नाम की संस्था का एसेंस है. क्योंकि उसी का फैसला सुप्रीम है. राष्ट्रपति, महज उसका रबर स्टांप है. सरकार उसके मातहत है. बजट, बिल, कानून, प्रमुख नियुक्तियां- हर बात, हर चीज में सरकार, संसद से एप्रूवल लेकर ही बढ़ सकती है. और यही LOP का महत्व है.

 

संख्या के कारण तो सरकारी पक्ष के पास पूरी गवर्नमेंट की ताकत है. लेकिन फर्स्ट पास्ट द पोस्ट इलेक्शंस में, शायद 36% वोट ही मिले हैं. LOP के पास, संख्या कम होने के बावजूद, उसकी आवाज में 64% की गूंज हो सकती है. वह सिर्फ अपने ही दल, हर उस छोटे दल या निर्दलीयों का भी पक्ष-प्रतिरक्षक है, जो महज एक सीट लेकर भी राज्यसभा/ लोकसभा में बैठा है. आप इतनी आवाजों को दरकिनार करें, यह हमारी व्यवस्था के निर्माताओ की मंशा का उल्लंघन है.

 

और जरूरी बात- विपक्ष आपका सक्सेसर है. आपका उत्तराधिकारी है. अभी नहीं-तो कभी, उसकी, उसके दल की सरकार बनेगी. उसकी ग्रूमिंग जरूरी है. उसे बताना, सिखाना, विश्वास में रखना, अवगत कराना और उसकी सहमति हासिल करना सरकार का कर्तव्य है. ताकि जब कभी आप हटें, दूसरी सरकार आए, तो वह शासन के हालातों से, गवर्नेंस की बारीकियों से, रक्षा-विदेश-सेंसिटिव मसलों में नौसिखिया, हक्का बक्का न रहे. नेशनल पॉलिसीज में, इंटरनेशनल स्टैंड में- भारत देश की कनसिसटेंसी बनी रहे.

 

यही कारण है 14 सांसदों वाले दल के अटल बिहारी को जवाहरलाल नेहरू, विदेशी नेताओं से - "भारत का भावी प्रधानमंत्री"- कहकर मिलाते हैं. जिन्हें अवसर 40 साल बाद मिला. तो सरकार नेहरू की हो, नरसिंह राव की, अटल या मनमोहन की-विदेश नीति में, स्ट्रेटजिक मसलों में, सीधे या बैक ट्रेक चैनल से, विपक्ष को साधकर, साथ रखा गया.

 

संसद के अपने नियम हैं. बहसों का विषय, प्रस्तावों, बिलों को चर्चा में लेना, सभी दलों में व्यक्तव्य का समय वितरण करना, सदस्यों के प्रश्न स्वीकार करना- सभापति के नियंत्रण में होता है. जहां दशकों तक परंपरा रही कि अध्यक्ष सत्ता पक्ष से हो, उपाध्यक्ष विपक्ष का. दोनों ही,  दोनों तरफ की सहमति से चुने जाते. दरअसल, लोकतंत्र का मतलब, 5 साल में वोटिंग चुनाव करवा देना नहीं,  यह दो चुनाव के बीच सरकार, संसद और संवैधानिक संस्थाओ के कंडक्ट में दिखता है.

 

यह हंसी- ठट्ठे, नोक-झोंक के बाद, व्यापक सहमति से जनता को बेहतर गवर्नेंस देने के इरादे में दिखता है. यह इरादा, हमारी पीढ़ियों ने, दसियों लोकसभाओं में देखा है. जो दस सालों से लुप्त है. विपक्ष शत्रु, देशद्रोही, दुश्मन और गद्दार करार दिया जा चुका है. LOP अब देश को खतरा है. उसकी आवाज सदन से सड़क तक, बाधित की जाती है. मानहानि, षड्यंत्र, चोरी, फोर्जरी के दर्जनों नॉनसेंस मुकदमों में उलझाया जाता है. राष्ट्रीय पर्वो पर पीछे की सीट दी जाती है. सदस्यता से बेदखल कर, घर से निकाला जाता है. नियुक्तियों में दरकिनार और अंतराष्ट्रीय राष्ट्रीय महत्व की मुलाकातों से दूर रखा जाता है.

 

राजनीतिक रूप से यह फासिज्म है. सामाजिक रूप से अशोभनीय और व्यक्तिगत स्तर पर अपमानजनक है. यह LOP का नहीं, हर उस शख्स का दमन है, उनसे सरकार की रीति नीति पर, संसदीय नियंत्रण की उम्मीद रखता है. और राजनीतिक जमात के मध्य, न्यूनतम डीसेंसी की उम्मीद रखता है.

 

बहरहाल, दस सालों के बाद, नेशनल हेराल्ड नाम के कूटरचित मुकदमे में, कोर्ट ने राहुल पर चार्जशीट खारिज कर दी. यह मुकदमा, किसी सेंसिबल नजरिये से तो कभी खड़ा ही नहीं होना चाहिए था. पर हुआ. आग के ऐसे तमाम दरिया, राहुल ने डूबकर पार किये है. दमन और दुत्कार ने उन्हें कहीं गहरा, गंभीर, अविचल और वर्दी टू पॉवर बना दिया है. यानी एक गंभीर समाज के लिए, लंबी राजनीतिक लड़ाई से तराशा हुआ, एक गंभीर विकल्प.  दिस इज एग्जेक्टली व्हाट, इट मीन टू बी LOP.

 

डिस्क्लेमर :  यह लेखक के निजी विचार हैं...

 

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