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सलवा जुडूम पर अमित शाह और भाजपा का स्टैंड क्या है?

  • सलवा जुडूम के मामले में फैसला देने वाली बेंच में रहे जस्टिस रेड्डी उपराष्ट्रपति पद के विपक्ष के उम्मीदवार है.
  • फैसले के आधार पर उनके खिलाफ अभियान चलाना ओछापन ही कहलायेगा!

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श्रीनिवास

आज की कांग्रेस का जो भी स्टैंड हो, मगर सर्वविदित है कि ‘सलवा जुडूम’ नामक नक्सल विरोधी अभियान कांग्रेस के शासन काल में कांग्रेस (पहले सीपीआई में) के एक आदिवासी नेता महेंद्र करमा ने शुरू किया था, जिसे राज्य सरकार का संरक्षण और समर्थन हासिल था. समाज का जो तबका नक्सल विरोधी (जिनमें से अधिकतर को आदिवासी हितैषी नहीं कहा जा सकता था, ‘सलवा जुडूम’ को सबों का समर्थन हासिल था.

 

वह एक असंवैधानिक संगठन था- माओववादियों की तरह ही, जो कानून में विश्वास नहीं करता था और उनके खिलाफ हथियारबंद संघर्ष करता था. तब छतीसगढ़ में विपक्ष में रही भाजपा भी उसके (अघोषित) समर्थन में थी. आरोप है कि बाद में विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अंदरखाने माओवादियों से भी तालमेल कर लिया था.

 

आज जब केंद्र सरकार माओवादियों के समूल खात्मे का अभियान चला रही है, तो गृह मंत्री को साफ करना चाहिए कि क्या भाजपा ‘सलवा जुडूम’ का समर्थन करती थी? आज भी उसे सही मानती है? ‘फर्जी मुठभेड़’ तो पुलिस भी करती है, सरकार किसी दल की हो, मगर पुलिस उसे असली बता सकती है. ‘सलवा जुडूम’ के लोग जब किसी की जान लेते थे, उसे हत्या के आलावा कुछ नहीं कहा जा सकता.

 

आरोप था कि ‘सलवा जुडूम’ के हथियारबंद लड़ाके नक्सल समर्थक होने के संदेह में आदिवासी बस्तियों पर हमला करते थे. माओवादी भी जवाबी कार्रवाई करते थे. दोनों तरफ से बहुत खून-खराबा हुआ. अंततः माओवादियों ने महेंद्र करमा की हत्या कर दी. उस हमले में राज्य के तमाम शीर्ष कांग्रेसी नेता मारे गये थे.

 

माओवादियों या राज्य की सत्ता को हथियार के बल पर चुनौती देने वाले किसी भी संगठन के खिलाफ कारवाई करने का दायित्व राज्य/स्टेट को है, इसका इसे अधिकार भी है. लेकिन इसके लिए अलग से एक अवैध ‘सेना’ तैयार करना किसी तरह मान्य नहीं हो सकता. इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने वह फैसला भी दिया था.

 

यदि भाजपा को तब लगता था कि फैसला गलत है, तो उसे उसके खिलाफ याचिका दायर करनी चाहिए थी. अब चूंकि वह फैसला देने वाली बेंच में रहे जस्टिस रेड्डी उप राष्ट्रपति पद के विपक्ष के उम्मीदवार है, तो उस फैसले के आधार पर उनके खिलाफ अभियान चलाना ओछापन ही कहलायेगा!

 

शासन कांग्रेस का रहा हो या भाजपा का, माओवाद के नाम पर निरीह निर्दोष आदिवासियों को ‘टाडा’ और ‘पोटा’ जैसे कानूनों के तहत झूठे आरोपों में गिरफ्तार किया जाता रहा है. अदालतें सबूतों के अभाव में अधिकतर को बेगुनाह मान कर रिहा करती रही हैं. तो क्या ‘माओवादी’ बता कर पकड़े गये लोगों को रिहा करने वाले सभी जजों को माओवाद समर्थक या माओवाद को बढ़ावा देने वाला फैसला देने वाले मान लिया जायेगा?

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