Pramod Pathak
महान दार्शनिक और विचारक अरस्तु ने कहा था कि गणतंत्र क्षीण होकर लोकतंत्र में बदल जाते हैं और लोकतंत्र भ्रष्ट हो कर तानाशाही में. आज दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था की गिरावट पर एक बहस चल रही है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सौ से ज्यादा देशों को लोकतंत्र सम्मेलन में भाग लेने के लिए बुलाया है. भारत में भी वर्तमान केंद्र सरकार की कार्यशैली और राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता रद्द किए जाने के मुद्दे को लेकर लोकतंत्र के सवाल पर बहस चल रही है. दरअसल लोकतंत्र तो एक मूल्य आधारित व्यवस्था है.यदि सत्ता पर काबिज लोग ही सत्ता पर बने रहने के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों को दरकिनार कर दें तो लोकतंत्र का क्षरण होना ही है. लोकतांत्रिक व्यवस्था की भावना के मूल में जनता और शासन के बीच का संबंध ही महत्वपूर्ण है. अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था कि लोकतंत्र का मतलब है जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा चुनी गई सरकार.
यह पहली बार नहीं है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लगा हो. कोई सौ साल पहले भी यूरोप में हिटलर और मुसोलिनी के नेतृत्व वाली सरकारों का उदाहरण इतिहास में है. भारत में भी आपातकाल के दौरान यह हुआ था. अमेरिका में भी राष्ट्रपति ट्रंप की हार के बाद व्हाइट हाउस में हुई घटनाओं के बाद लोकतंत्र की अवधारणा को लेकर चिंता व्यक्त हुई थी. कुल मिलाकर यह समझना होगा कि कोई भी शासन व्यवस्था उतनी ही सही होगी, जितना कि शासक. जब शासन पर काबिज लोग राजधर्म का पालन नहीं करेंगे तो उस व्यवस्था की सफलता संदिग्ध ही रहेगी. हमारे देश में प्राचीन काल में लिच्छवी वंश के शासन को आदर्श लोकतंत्र माना जाता है. लोकतंत्र में शासन प्रणाली महत्वपूर्ण है, शासक नहीं. यानी राजतंत्र में भी लोकतंत्र हो सकता है यदि राजा नैतिक मूल्यों का अनुपालन करे. चाहे राम राज्य की बात करें या विक्रमादित्य के जमाने की या फिर आज के दौर की.
मूल मंत्र एक ही है राजधर्म. लोकतंत्र को समझने के लिए राजधर्म को समझना जरूरी है. राजधर्म पर मनुस्मृति में व्यापक चर्चा है, जिसमें राजा के कर्तव्य और उसकी जिम्मेदारियां निहित हैं. किंतु बिना उस गहराई में गए भी लोकतंत्र की धारणा और उसकी भावना को समझा जा सकता है, और लोकतंत्र क्यों बिखरता है इसके कारण जाने जा सकते हैं. प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान के ऐसे कई उदाहरण हैं, जो यह बताते हैं कि लोकतंत्र कैसे चलता है. हम रामराज्य को आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था के पर्याय के रूप में देखते हैं. यदि रामराज्य की दो एक घटनाओं पर ही गौर करें तो तस्वीर साफ हो सकती है. पहली घटना उस वक्त की है जब राम वनवास जा चुके थे और भरत उनके पास जाकर उनसे लौटकर सत्ता संभालने का निवेदन कर रहे थे. समझने वाली बात यह है कि भरत राजा बन चुके थे और यह एक स्थापित प्रक्रिया के तहत हुआ था. इसके बावजूद उन्हें लगा कि उनका राज्याभिषेक पूरी तरह नैतिक नहीं था. इसलिए उन्होंने राम के पास जाकर उनको अयोध्या चलने का निवेदन किया. अब राम की भूमिका में भी नैतिकता का वही स्वरूप दिखता है.
वह भरत के तमाम आग्रह के बावजूद इस निवेदन को स्वीकार नहीं करते. यानी उन्हें राज्य मिल सकता था और सही तरीके से मिल सकता था, लेकिन उन्हें लगा कि यह उचित नहीं होगा. इसलिए उन्होंने अस्वीकार किया. इसकी तुलना यदि हम वर्तमान समय से करें तो लोकतंत्र में मूल्यों का महत्व समझ सकते हैं. आजकल तो लोग चुनी हुई सरकारों को सत्ता से हटाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाते हैं. सारी समस्या की जड़ में अहंकार, आत्ममुग्धता और सत्ता पर स्थाई रूप से काबिज रहने की आकांक्षा है. अजीब स्थिति है कि लोग मृत्युलोक में भी अमरत्व की तलाश करते हैं. सतयुग से लेकर कलयुग तक मनुष्य की यह कमजोरी ही सारी समस्या की जड़ में है. सतयुग में हिरण्यकश्यप को भ्रम हो गया कि मैं ही विष्णु हूं. त्रेता में रावण भी इसी तरह के भ्रम का शिकार हुआ और द्वापर में दुर्योधन. कलयुग यानी वर्तमान युग की भी यही त्रासदी है.
कहते हैं लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था है, क्योंकि कोई बेहतर विकल्प नहीं है. प्रश्न है कि यह सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था क्यों दूषित होकर तानाशाही की तरफ फिसल जाती है. इसका जवाब भी रामायण में मिल सकता. जब शासक अपनी बनाई व्यवस्था में घिर जाता है तो जन भावनाओं को समझ नहीं पाता. उसके सलाहकार उसे भ्रमित करते हैं. सुंदरकांड में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-सचिव, वैद्य, गुरु तीन जो प्रिय बोलहि भय आस, राज, धर्म, धन तीन कर होई बेगहि नास. अर्थ स्पष्ट है. जब राजा के करीब रहने वाले सचिव, वैद्य और गुरु सही न बोल कर लाभ पाने या भयवश कर्णप्रिय बातें बोलते हैं तो धीरे-धीरे सब नष्ट हो जाता है. लोकतंत्र में सही सूचना का बड़ा महत्व है. जन भावना क्या है, जनता क्या सोच रही है, ऐसा तंत्र विकसित कर राजा को हमेशा जानकारी लेनी चाहिए. लोकतंत्र में केवल जनता का बोलना ही काफी नहीं है. उसको सुना भी जाना चाहिए. राम राज्य में इसका भी उदाहरण है.
राम ने अपनी प्रजा के एक व्यक्ति की भावना का आदर करते हुए सीता का परित्याग किया था. राजधर्म का इतना उत्कृष्ट उदाहरण शायद ही मिले. लोकतंत्र की खासियत है कि इसमें शासक नहीं, व्यवस्था स्थायी होती है. वर्तमान दौर में शासक वर्ग ही स्थायीत्व खोजने लगा है और उसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. नियमों का बदलना, संस्थाओं को कमजोर करना, विरोध का दमन करना आदि. आज दुनिया के कई देशों में यह प्रवृत्ति दिख रही है. नीति, नैतिकता और नम्रता यही लोकतंत्र की आवश्यकता है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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