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आजादी के परवानों में शुमार कुंवर लुतवरण सिंह की तीसरी पीढ़ी में भी भरा है देशभक्ति का जज्बा
सन 57 में चतरा फांसी तालाब पर किया था विद्रोह, हब्शी कैंप रांची में भी दिया था योगदान
Amarnath Pathak
Hazaribagh : हजारीबाग के कटकमदाग प्रखंड स्थित कस्तूरीखाप की माटी ने भी देशभक्तों को जन्म दिया है. यहां के कुंवर लुतवरण सिंह उन स्वतंत्रता सेनानियों में एक रहे हैं, जिन्होंने फिरंगियों की फौज का डटकर मुकाबला किया था. भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम सन 1857 के सिपाही विद्रोह में उन्होंने अपने चंद साथियों के साथ मिलकर विद्रोही सेना बनाई थी. सेना की इस टुकड़ी ने अंग्रेजों की बड़ी फौज को नाको चने चबवा दिया था. लाल विश्वनाथ शाहदेव और बाबू वीर कुंवर सिंह के सानिध्य में रहने वाले कुंवर लुतवरण सिंह पर भी देश को आजाद कराने का जुनून सवार था. छात्र जीवन में ही वह विद्रोही सेना में शामिल होकर फिरंगियों के खिलाफ आजादी का बिगुल फूंक दिया था.
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दादा जी की बहादुरी की गाथा पिता जी सुनाते थे : कुंवर सिद्धार्थ शंकर रॉय
यह जानकारी देते हुए उनके पौत्र कुंवर सिद्धार्थ शंकर रॉय बताते हैं कि उनके पिता स्व. धनुषधारी सिंह उर्फ ननका बाबू उन्हें दादा जी की बहादुरी की गाथा सुनाते थे. उन्होंने बताया कि चतरा फांसी तालाब के पास तब विद्रोही सेना का गठन किया गया था. उसमें शामिल नौजवान अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लेने को तैयार थे. सभी ने उनका साथ भी दिया. उसी दौरान रांची में लगे हब्शी कैंप में भी उन्होंने योगदान दिया था. कुंवर तुलवरण सिंह तब छोटानागपुर का नेतृत्व करते हुए विद्रोही सेना ने अंग्रेजी हुकूमत का विरोध किया था. भारत मां के वीर सपूत मंगल पांडेय की शहादत के वह गवाह थे. हाल ही में आजसू का दामन थाम राजनीति में कूदे कुंवर सिद्धार्थ शंकर रॉय कहते हैं कि उनकी रगों में उनके दादा जी खून दौड़ता है.
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“हर वक्त जुबां पर देशगान चाहिए”
वह संदेश देते हैं कि पूर्वजों ने हमें जिस हिन्दुस्तान को आजाद कर हमें सौंपा, उसकी रक्षा करना और संवारना हमारा नैतिक दायित्व और कर्तव्य बनता है. मेरी माटी मेरा देश ही हमारा धर्म और ईमान है. अंत में गीत गुनगुनाते हैं कि न तीर चाहिए, न कमान चाहिए, युद्ध का न कोई सामान चाहिए, हर वक्त जुबां पर देशगान चाहिए, अंत तमन्ना यही मेरी, मरते वक्त भी जुबां पर देशगान चाहिए…और वंदे मातरम के नारे के साथ अपने दादा की वीरता की कहानी का समापन करते हैं.
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