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गांवों की सरकार को राजनैतिक नियंत्रण की बंधी डोर से कब आजादी मिलेगी !

Faisal Anurag पंचायतों पर पकड़ राजनैतिक दलों के अभियान का हिस्सा बन गया है. पिछले आठ सालों से एक नये मिजाज की राजनीति का नजारा देखने को मिल रहा है, जिसमें स्थानीय निकायों के चुनावों का महत्व विधानसभा और लोकसभा की चुनाव की तरह हो गया है. पंचायतों पर पकड़ को राजनैतिक विचारधारा और भारी जनसमर्थन दिखाने में खुल कर इस्तेमाल किया जा रहा है. पिछले साल ही उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों को 2022 के विधानसभा चुनाव के सेमीफाइनल की तरह बना दिया गया. देश के ही कई ऐसे राज्य हैं जहां चुनाव दलीय आधार पर होते हैं और किसी भी पार्टी के वर्चस्व और विचार की पुष्टि के बतौर उसे प्रस्तुत किया जाता है. पंचायतों की सरकार हालांकि राजनैतिक आकांक्षा की भेंट चढ़ा दी जा रही हैं. इसका नतीजा यह है कि कि पंचायत के चुनाव भी अन्य चुनावों की तरह भड़कीले,शाही खर्च और धनबल बाहुबल के पर्याय बन गए हैं. गांवों की सरकारों ने गांवों की तस्वीर को कितना बदला है यह तो सामाजिक अंकेक्षण का विषय है, लेकिन मोटे तौर पर भारतीय राजनीति के बदले नए मिजाज में वे प्राथमिक शक्तिस्रोत बन कर उभरे हैं, जिससे किसी भी राज्य और अंतत: किसी भी राजैतिक दल के भविष्य से जोड़ कर देखे जाने का सिलसिला मजबूत हुआ है. झारखंड में पंचायतों के चुनाव के एलान के साथ ही आदिवासी संदर्भ के कई सवाल दस्तक देने लगे हैं. पंचायतों को ही परंपरागत आदिवासी स्वशासन का विकास बताने की प्रतिस्पर्घा के बीच उन सवालों को नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा, जिसे अनेक आदिवासी समूहों ने उठाया है. इसमें एक सवाल तो पेसा एक्ट का है जो पांचवी अनुसूची के इलाके के लिए एक खास तरह की प्रणाली के विकास पर जोर देता है. लेकिन 25 साल गुजर जाने के बाद भी पेसा एक्ट एक ऐसा फुटबॉल बन कर रह गया है जिस पर किक लगाने से कोई परेहेज तो नहीं करता, लेकिन किक को दिशा देने के बजाय मैदान से बारबार बाहर उछाल दिया जाता है. इस तरह गांव की सरकार का ढोल चाहे जितना बजाया गया हो उसे एक राज्य सरकार, प्रशासन और व्यवस्था के आगे विवश बना कर छोड़ दिया जाता है. ऐसे में गांवों की सरकार न तो स्वतंत्र तरीके से विकास की योजना बना पाती है और न ही आबंटित धनराशि का लोगों के हितों के अनुकूल इस्तेमाल कर पाती है. दूसरी ओर भ्रष्टाचार और अकुशलता की अलग ही कहानी है. झारखंड में ही पिछले छह सालों में 14वें और 15 वें वित्त आयोग के तहत जबावदेही के साथ गांव विकास के लिए करोड़ों रूपए दिए, लेकिन उसकी हकीकत की अनेक कहानियां मीडिया की सुर्खियां बनती रही है. जिससे उजागर होता है कि जबावदेही के साथ विकास की आजादी दूर का सपना है. यह हकीकत केवल झारखंड की ही नहीं है. चुनाव के समय यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि संवधिान के 73वें संशोधन के बाद जिस पंचायती राज की परिकल्पना पेश की गयी थी वह कितना करगर साबित हुआ है. कई अध्ययन बताते हैं कि योजना और हकीकत के बीच एक बड़ा फासला बना हुआ है. इसका एक बड़ा कारण तो वह राजनैतिक मिजाज है जिसने पंचायती चुनाव की जीत को अपने जनसमर्थन के बतौर प्रस्तुत करता है. पिछले साल की ही बात है जब एक हैदराबाद के निकाय चुनाव के प्रचार के लिए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सघन प्रचार किया, जिस तरह विधानसभा या लोकसभा के चुनावों में किया जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो निकाय चुनावों की कामयाबी के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं को बधाई देते हैं. इतनी अहमियत के बावजूद जबावदेही के साथ विकास का संवैधानिक संकल्प जमीन पर दम तोड़ता क्यों प्रतीत होता है. पूरे देश में केवल केरल ही एक उदाहरण है जहां निकाय चुनाव राजनैतिक संघर्ष का हिस्सा होने के बावजूद जमीन से बजट बनाने और उसे जमीन पर उतारने की जबावदेही के सफल उदाहरण प्रसतुत करता है. विकेंद्रित योजना के केरल के उदाहरण बताते हैं कि इससे गांव की राजनैतिक चेतना निर्णायक हुयी है. झारखंड की सरकार के लिए यह चुनौती है कि यदि वह झारखंड के गांवों को वास्तव में सशक्त होने देना चाहती है कि उसकी डोर को ढीला छोड़़े और स्थानीय सरकारों को शक्तियों, कार्यों, संस्थानों और कर्मचारियों के हस्तांतरण को एक कारगर विकास का आधार बनाए. इसके साथ ही आदिवासी सवालों को ज्यादा देर तक नजरअंदाज करना पांचवीं अनुसूची के इलाकों के सशक्तीकरण की प्रक्रिया को गति नहीं प्रदान कर पाएगी. पेसा एक्ट की नियमावली को सरल बनाने की जरूरत है और इसके अनूकूल गांव को लघु खनिज पर पूर्ण अधिकार दिए जाने की जरूरत है. इसके साथ ही परंपरागत स्वशासन और पंचायती राज के बीच समन्वय का तरीका भी निकालने की गंभीर चुनौती को हल करने की अनिर्वायता है.झारखंड को केरल की तरह पंचायती राज का एक और मॉडल बनाना संभव है , बशर्ते राजनीतिक नियंत्रण के बजाय गांव सरकारों को स्वयत्तता प्रदान की जाए. [wpse_comments_template]

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