Faisal Anurag
ऐतिहासिक भूल भारत के कम्युनिस्टों का प्रिय मुहावरा है. भूल तो स्वीकार कर लिया जाता है और दूसरी ऐतिहासिक भूल की तैयारी होने लगती है. देश दुनिया में लोकप्रिय केरल की स्वास्थ्य मंत्री शैलजा टीचर को कैबिनेट से बाहर कर दिया गया है. ये वहीं के. के. शैलजा हैं जो पूरे केरल में टीचर शैलजा के नाम से जानी जाती हैं. दो-दो वायरस का मुकाबाला जिस तरह उन्होंने किया उससे पूरे देश में उन्हें जाना जाने लगा. दुनिया भर अखबारों और संस्थानों ने उनके काम की तारीफ किया. केरल में वे सबसे ज्यादा मतों के अंतर से जीत हासिल करने का रिकॉर्ड बनाया. लेकिन केरल सीपीएम ने नए लोगों को मौका देने के नाम पर उन्हें मंत्री पद नहीं दिया.
नए लोगों को टिकट दिए जाने के नाम पर ही चुनावों में एक अन्य लोकप्रिय मंत्री अर्थशास्त्री थॉमस इशाक को टिकट नहीं दिया गया. सुधाकरन भी केरल के कम्युनिस्ट आंदोलन में बड़े नाम हैं वे भी मंत्री थे उन्हें भी टिकट नहीं दिया गया. सीपीएम तर्क दे सकती है कि उसने 33 विधायकों और पांच वरिष्ठ नेताओं को टिकट नहीं दिया लेकिन पार्टी ने 2017 के चुनावों से कहीं ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया और टिकट से वंचित सभी नेता भी पार्टी के लिए समर्पित भाव से काम करते रहे.
यही तर्क तो 1996 में भी सीपीएम ने दिया था जब सीपीएम पालिट ब्यूरो और कार्यसमिति ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाए जाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. यही तर्क तो सोमनाथ चटर्जी के संदर्भ में दिया गया था लोकसभा अध्यक्ष थे और उन्हें पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया था. किसी कम्युनिस्ट पार्टी के आंतरिक ढांचे के लिए हो सकता है कि यह फैसला सही रहा हो. लेकिन भारतीय लोकतंत्र की जो वास्तविकता है उसके लिए तो इस तरह कास निर्णय हाराकिरी से कम नहीं है. बंगाल में इस बार विधानसभा में सीपीएम का खाता तक नहीं खुला. ज्योति बसु और सोमनाथ चटर्जी प्रकरण है तो पुराना लेकिन उसने यह आम धारणा बना दिया कि कम्युनिस्ट पार्टियां भारतीय लोकतंत्र के उस संदर्भ को नहीं समझ पाती. जिसने 1947 के बाद से अब तक एक लोकप्रिय मास लीडर को स्वीकृति प्रदान करता है.
क्या पता यदि 1996 में ज्योति वसु प्रधानमंत्री बन गए होते तो साझा सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा कर लेती और भारत का राजनीतिक इतिहास कुछ और होता. हालांकि राजनीति इस तरह के आकलन को खारिज करती है क्योंकि राजनीति वक्त की नजाकत पर सही फैसले की मोहताज होती है. शैलजा ज्योति वसु के बाद दूसरी सीपीएम नेता हैं जिन्हें पूरे देश में आदर के साथ देखा जा सकता है. मंत्री परिषद में उनके नाम को नहीं देख सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया केवल केरल ही नहीं बल्कि देश भर में हो रही है. कहा जा रहा है क्या शैलजा की लोकप्रियता सीपीएम नेताओं को रास नहीं आ रही थी. सवाल उठ रहे हैं कि विजयन के दामाद हालांकि वे पार्टी के युवा फ्रंट पर दामाद बनने के पहले से स्थापित हो चुके थे, क्यों मंत्री पद दिया गया है. इसी तरह राज्य सचिव विजयन की पत्नी को मंत्री बनाए जाने को ले कर भी तीखी टिप्पणी की जा रही है. हांलाकि इन दोनों ने अपने संघर्षो में पार्टी में मुकाम हासिल किया है लेकिन परिवारवाद के आरोप से बचने का कोई तरीका तो है नहीं. केरल में सरकार बदलने की परंपरा पहली बार नहीं हुई लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं इसे स्थायी मान लिया जाए.
शैलजा ने जरूर कहा है कि वे पार्टी की समर्पित कार्यकर्ता हैं और उन्हें पार्टी का फैसला स्वीकार है. लेकिन सीपीएम का फैसला वे वोटर और देश के नागरिक क्यों स्वीकार कर लें.जब देश को शैलजा जैसी नेता की जरूरत है. ज्योति वसु के प्रधानमंत्री की राह की ऐतिहासिक बाधा तो अब सब मानते हैं तो क्या देरसबेर यह भी माना जाएगा कि पार्टी अनुशासन और नियम एक और ऐतिहासिक भूल साबित होगी.
मास लीडर बनने की राह में बाधा डालने की प्रवृति से मुक्त होने की जरूरत है. इस बात को उन नेताओं को समझना चाहिए जो पार्टी पालिट ब्यूरों और सेक्रेटारिट पर कब्जा जमाए बैठे हैं.
सिर्फ शैलजा का नाम क्यों? पूरी बात समझने का प्रयास किया जाए। केरल में लेफ्ट ने दो बार विधायक रह चुके किसी भी व्यक्ति को इस बार टिकट नहीं दी। थॉमस इशाक और सुधाकरण जैसे नेताओं को भी टिकट नहीं दिया गया। पिछली बार मंत्री रहे किसी भी व्यक्ति को मंत्री नहीं बनाया। सिर्फ सीएम अपवाद हैं। खुद विजयन ने भी अगली बार चुनाव नहीं लड़ने की बात कही है
जिस पार्टी ने एक शैलजा बनाई, वह दूसरी शैलजा भी बना लेगी। सिद्धान्तनिष्ठ चीजों का सम्मान करना ही सहयोग करना है।
विष्णु जी, सीपीएम मजबूत जनवादी केन्द्रीयता पर अमल करता है,इसे कोई भी जानकर नकार नही सकता। लेकिन जब कोई नेता लोगों के दिलो में जगह बना ले लो भारत जैसे लोकतंत्र में कम्युनिस्ट पार्टी से इसकी उम्मीदें बढ़ जाती हैं।दुखद यह है कि क्रांतिकारी दौर के प्रयोग को आज के दौर में दुहराना उन अवसरों को जाम ही करता है जो जानता के लिए ज़रूरी है।सीताराम येचुरी को भी तीसरी बार राजतसभा नही भेज गया।सीपीएम उस अवसर को खो दिया जो येचुरी की बहसों से मिलती थी। पार्टी लीडरशिप अनंतकाल तक बनी रहती है इसकी कीमत मास लीडर को क्यों चुकानी पड़ती है, इसे ही हाईलाइट करने का प्रयास इस लेख में कीट गई।ज्योति बसु ,सोमनाथ चटर्जी की जमी पार्टी करे या ना करे वंगाल में 2011 जे बाद कि घटनाएं उसे याद दिला ही देती है।लोकतंत्र में पार्टी anushan हासिल अवसरों से विचारो की शुद्धता के साथ कैसे तालमेल किया जाए,इस हुनर तो विकसित किये बिना पार्टी के विस्तार को लेकर सवाल उठेंगे ही।
आप की चिंता जायज हो सकती है लेकिन अंदर की बात ये है की जिन लोगों के नामों का आपने उल्लेख किया वे सभी लोग उस फैसले में शामिल थे. जरा सोचें पार्टी यदी ज्योती दा को प्रधानमंत्री बना भी देती तो पार्टी अपना कौन कौन सा एजेंडा लागू कर पाती और अगर लागू नहीं करती तो फिर पार्टी पर सवालों का बौछार होता? ये नहीं किया वो नहीं किया. संक्रमण के इस काल में भी पार्टी कठोर फैसला ले कर अमल कर रही है वही बहुत बड़ी बात है. नेता और नीति में एक बुनियादी फर्क होता है. नेता तो सभी राज्यों में पर नीति उनके दल के स्वाभाव के अनुसार है.