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आर्थिक विकास के आंकड़ों को बताने से क्यों परहेज करती है केंद्र सरकार

Faisal Anurag  — क्या हाल में 23 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे चले गए? — क्या भारत के लोगों की वित्तीय संपत्ति जीडीपी के 21% से घटकर 8.2% रह गयी है? — क्या 25 राज्यों के 159 जिलों में फिक्सड डिपॉजिट्स की संख्या घट गयी है? संसद में पूछे गए सवालों पर केंद्र सरकार का जवाब है : आंकड़ें उपलब्ध नहीं हैं. यदि इसके साथ एक सवाल और जोड़ा जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था की एक दुखद छवि उभरती है. सीएमआईई का बेरोजगारी के संदर्भ में जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार पिछले सत्रह सप्ताह में एक बार फिर बेरोजगारी की दर दोहरे अंकों में पहुंच कर 10.20 हो गयी है. ये आंकड़े उस दौर के हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सदियों की गुलामी मानसिकता से मुक्ति का एलान वाराणसी में कर रहे हैं और दिब्य वाराणसी के साथ भारत की दिब्यता ओर भब्यता की बात कर रहे हैं. कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि मनमोहन सिंह की सरकार में देश के 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर लाया गया था लेकिन मोदी सरकार ने यूपीए सरकार की मेहनत पर पानी फेर दिया औैर 23 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिया. ``विश्व असमानता रिपोर्ट 2022`` के अनुसार, भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है, सीएमईआई के महेश ब्यास के अनुसार नवंबर के आंकड़ों में पहली निराशा यह है कि श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) फिसल गयी है. अक्तूबर में यह 40.41 फीसदी से गिरकर नवंबर में 40.15 फीसदी पर आ गयी. एलपीआर में गिरावट का यह लगातार दूसरा महीना है. एलपीआर अक्तूबर और नवंबर 2021 में 0.51 प्रतिशत अंक गिर गया है. अगर हम लॉकडाउन जैसे आर्थिक झटके के महीनों को बाहर करते हैं और अन्य महीनों में देखे गए औसत परिवर्तनों की तुलना में यह एलपीआर में एक महत्वपूर्ण गिरावट बनाता है.भारत की श्रम भागीदारी दर वैश्विक स्तर से बेहद कम है.विश्व बैंक के मॉडल और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुमानों के अनुसार श्रम भागीदारी के मामले में पर भारत से केवल 17 देश खराब हैं. इनमें से ज्यादातर मध्य-पूर्वी देश हैं.नवंबर 2021 में, जबकि भारत ने 1.4 मिलियन अतिरिक्त नौकरियां पैदा कीं. शहरी क्षेत्रों में रोजगार में 0.9 मिलियन की गिरावट देखी गयी.नवंबर के रोजगार आंकड़ों में तीसरी और संबंधित निराशा वेतनभोगी नौकरियों में गिरावट और उद्यमियों की संख्या में गिरावट है. वेतनभोगी नौकरियों में 6.8 मिलियन की गिरावट आई है. उद्यमियों में 35 लाख की गिरावट आई है. गरीबी रेखा के नीचे 23 करोड़ की संख्या का सवाल यदि उठा है तो इसका जबाव सरकार को देना चाहिए और वास्तविक स्थिति से देश को परिचित कराना चाहिए. दो लॉकडाउन से पैदा हुए संकट से निकलने की छटपटाहट तो दिख रही है लेकिन यदि सुधार के वास्तविक आंकड़े क्या हैं यह बताना जरूरी है. 2013 में योजना आयोग की ओर से जारी पिछले पांच साल के तुलनात्मक आंकड़ें कहते हैं कि 2004-05 से लेकर 2009-10 के दौरान देश में गरीबी 7 फीसदी घटी है और गरीबी रेखा अब 32 रुपये प्रतिदिन से घटकर 28 रुपए 65 पैसे प्रतिदिन हो गयी है. लेकिन पिछले आठ सालों में ऐसा क्या हुआ कि गरीबी रेखा के नीचे जाने वालों की संख्या में बढ़ोतरी होने की बात की जा रही है. देश में अर्थशास्त्रियों का एक तबका तो नोटबंदी और जीएसटी के नकारात्मक प्रभावों की चर्चा करता रहा है. नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) के अनुसार बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश देश के सबसे गरीब राज्यों के रूप में सामने आए हैं .सूचकांक के अनुसार, बिहार की 51.91 प्रतिशत जनसंख्या गरीब है. वहीं झारखंड में 42.16 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 37.79 प्रतिशत आबादी गरीब है. सूचकांक में मध्य प्रदेश (36.65 प्रतिशत) चौथे स्थान पर है, जबकि मेघालय (32.67 प्रतिशत) पांचवें स्थान पर. इन में चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का शासन है. नीति आयोग ने ही कहा है कि छह राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में 10.96 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) रहती है. बहुआयामी गरीबी (एक ही समय में कई नुकसान) के अनुसार आठ राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों में 13.95 प्रतिशत या उससे अधिक की संख्या गरीब है. इसी साल जून में नीति आयोग ने बताया था कि कोई भी राज्य प्रत्येक घर के सदस्य को स्वास्थ्य योजना या बीमा प्रदान करने में कामयाब नहीं हुआ है. किसी भी राज्य ने सभी पात्र आबादी को प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना के तहत सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रदान नहीं किया है. इस देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की योजना बताती है कि कम से कम इतने लोग तो सरकार की सहायता पर ही निर्भर है. इस सवाल को पूछा जाना चाहिए कि आखिर 80 करोड़ लोग किन वजहों से जिंदगी बसर करने के लिए सरकार के मुफ्त राशन लने की योजना में हिस्सेदार बने हुए हैं.राजनैतिक तौर पर भले ही धार्मिक प्रतीकों की राजनीति और मुफ्त राशन की योजना वोट दिला दे, लेकिन आर्थिक ताकत बनने की दिशा में ये सहायक नहीं होते हैं.केंद्र को चाहिए कि वह आंकड़ों को छुपाने के बजाय उसे उजागर करे. [wpse_comments_template

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