Faisal Anurag
प्रोटोकॉल! यदि इस शब्द को हिंदी के मशहूर उपन्यास रागदरबारी के एक पात्र “छोटे पहलवान” ने सुना होता तो तुरत कहता, बहुत ऊंची बात कह दी श्रीमान जी ने. जब कभी उसे किसी प्रभावशाली व्यक्ति के शब्दों पर भरोसा नहीं होता, तो वह इसी तरह का व्यंग्य बाण चलाया करता. प्रोटोकॉल सिर्फ उस समय ही नहीं टूटता, जब कोई अपने राज्य के लोगों की परेशानियों का बयान करे और यह पूछे यदि आक्सीजन आपूर्ति में कोई बाधा आये, तो किससे पूछा जाये. वह तो तब भी टूटता है, जब महामारी की गति की तीव्रता के बावजूद चुनावों में प्रचार में भारी भीड़ जुटाई जा रही हो.
केजरीवाल का वक्तव्य पहली बार तो लाइव नहीं हुआ है. प्रधानमंत्री अपने भाषणों का भी तो लाइव कराते आये हैं. हां, अरविंद केजरीवाल ने बतौर मुख्यमंत्री जो सवाल उठाने का साहस किया है, शायद 2014 के बाद पहली बार ही हुआ है. यदि 2014 के पहले की घटनाओं को याद किया जाये, तो प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की बैठकों को सावर्जनिक किया गया और कई बार उसका मजाक भी बनाया गया है. यह किसी और ने नहीं, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने ही किया है. बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह के सवाल और भाषा का प्रयोग डॉ सिंह से किया करते थे, क्या आज कोई मुख्यमंत्री वैसा करने लगे, तो उन पर क्या प्रतिक्रिया होगी.
मुख्यधारा मीडिया तो केवल विपक्ष के मुख्यमंत्रियों से ही सवाल करने या उनके किसी एक्शन को गलत ठहराने की प्रतिस्पर्धा करती है. दिन भर केजरीवाल से सवाल करने वाली मीडिया तो दिल्ली और देश के दूसरे राज्यों मे जो तबाही का मंजर है, उसमें भी पॉजिटीविटी दिखाने लगती है. देश जब एक आपदा प्रबंधन इमरजेंसी से गुजर रहा है, तब भी तो सही सवाल सही निशाने पर दागे नहीं जा रहे हैं. दरअसल देश मानवीय मूल्यों के क्षरण के एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहां संवेदनाएं कुंद हो चुकी हैं. समाज, राजनीति और शासन के ताकतवर हिस्सों के लिए कर्तव्य, संवेदना और करुणा जैसे शब्द सिर्फ कागजों में ही क्यों रह गये हैं? जबसे सवाल पूछने वालों को देशद्रोही कहा जाने लगा, हालात बदलते गये.
सवालों को सरकार के निर्णयों के प्रोटोकॉल का उल्लंघन ही तो माना जाएगा, लेकिन यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि विदेशों में बनी वैक्सीन भारत के लोगों के लिए महंगी क्यों हैं? यहां तक कि बांग्लादेश भी भी ज्यादा महंगी. कोविशिल्ड के जो दाम भारत में निर्धारित किये गये हैं, वह दुनिया के अनेक देशों से से कहीं ज्यादा है. भारत में इस वैक्सीन को निजी अस्पतालों को छह सौ रु में दिया जायेगा. यानी आठ डॉलर. लेकिन इसी कोविशिल्ड को बांग्लादेश के अस्पताल केवल 4 डालर में दे रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका में इसकी कीमत 5.25 डालर निर्धारित की गयी है. यूरोपियन यूनियन ने इसकी कीमत 3.50 डॉलर निर्धारित की है. ब्राजील ने तो इसे 3 डॉलर में ही बेचने का निर्णय लिया है.
जहिर है भारत के निजी क्षेत्र और कोविशिल्ड बनाने वाली कंपनी सीरम को फायदा पहुंचाया जा रहा है. याद कीजिए, कोविशिल्ड बनानेवाली मुख्य कंपनी एस्ट्राजेनेका के प्रमुख ने साफ-साफ कहा था कि उनकी वैक्सीन का उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं है. लागत मूल्य पर ही वैक्सीन लोगों तक पहुंचायी जायेगी. बावजूद इसके भारत में ऐसा क्यों है कि इस वैक्सीन की कीमत ज्यादा रखी गयी है. दरअसल यह कोई रहस्य या रॉकेट साइंस का सवाल नहीं है, जिसे समझा नहीं जा सके. भारत सरकार उस आर्थिक नीति को अमल में ला रही है, जिसका मकसद वेलफेयर नहीं है. निर्मला सीतारमण बारंबार यूं ही तो नहीं कह रही हैं कि इस महात्रासदी में भी उनके सुधारों का एजेंडा जारी रहेगा.
जब आक्सीजन की गुहार को ही प्रोटोकॉल का उल्लंघन माना जाने लगा हो, तब तो हर सवाल किसी न किसी के प्रोटोकॉल के लिए चुनौती ही है. राज्यों से सहयोग की बात करना जितना सहज है, उस पर अमल करना किसी भी एकाधिकारवादी तंत्र बनाने की जिद रखने वाले शख्स के लिए मुश्किल है.कोविड प्रबंधन की शैली हो या राज्यों के अधिकार वाले क्षेत्रों पर भी दखल करने की प्रक्रिया, दोनों ने ही भारत के संघात्मक ढांचे को न केवल कमजोर किया है, बल्कि राज्य सरकारों के स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता को भी प्रभावित किया है.
प्रधानमंत्री ने राज्यपालों से जिस अंदाज में बात की है, उसके संकेत भी राज्य सरकारों के लिए परेशान करने वाले हैं. पिछली लहर में केरल के मुख्यमंत्री विजयन के सवालों ने परेशान किया था, लेकिन इस बार जैसे हालात हैं, भुक्तभोगी और उनके परिजन भी सवाल कर रहे है. उनके सवालों के निशाने पर राज्य सरकारें भी हैं.
बिहार के चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी ने फ्री वैक्सीन का वायदा किया. अब बंगाल में भी भाजपा ने फ्री वैक्सीन देने की बात कही है.जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें नहीं हैं, वहां की सरकारों ने भी अपने नागरिकों के लिए फ्री वैक्सीन की बाते कहीं हैं. लेकिन केंद्र से वैक्सीन की आपूर्ति की संख्या और गति को लेकर उठ रहे सवालों के बीच राज्य सरकारों के टास्क बेहद जटिल हो गये हैं. केरल की वामफ्रंट की सरकार ने केरल में फ्री वैक्सीन देने का वायदा किया है. अब उसे अमल में लाने के लिए राज्य में बड़े पैमाने पर लोगों से ही चंदा लिया जा रहा है. मुख्यमंत्री पी विजयन के आग्रह पर चंदे के पहले दिन ही 40 लाख ररुपए वैक्सीन फंड के लिए जुटा लिये गये. एक देश-एक वैक्सीन नीति के दावे की हकीकत दिन ब दिन उजागर हो रही है. तो क्या इसमें वैक्सीन नीति प्रोटोकॉल प्रभावित नहीं हो रहा है. इस पर चुप्पी क्यों है.

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