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कांग्रेस नेतृत्व राजनीतिक हाराकिरी के हालात में भी तमाशबीन क्यों बना हुआ है !

Faisal Anurag पंजाब में मचे राजनीतिक उथलपुथल के बाद एक ओर जहां समूह 23 के दो प्रमुख सदस्यों ने गांधी परिवार के नेतृत्व को पहली बार खुली चुनौती दे दी है, वहीं राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकारों की स्थिरता को लेकर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है. एक ओर राहुल गांधी ``रिविल्ड कांग्रेस`` कार्ययोजना को अंजाम देने के लिए देश में संघर्षों के माध्यम से पहचान बना चुके युवा नेताओं को कांग्रेस में लाने का के प्रयास में लगे हैं वहीं कांग्रेस के आंतरिक उथल—पुथल ने इस पूरी योजना के भविष्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. जब कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा था तब वे विद्रोह के बजाय अपने अस्तित्व को लेकर ज्यादा सजग थे. लेकिन पंजाब के घटनाक्रम के बाद तो एक तरह से सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया है. गुलाम नबी आजाद, जिन्होंने राज्यसभा से रिटायर होने के बाद नरेंद्र मोदी की तारीफों के पुल बांध दिए थे और बाद में उनसे मुलाकत तक कर ली थी, और कपिल सिब्बल ने तो कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक तुरंत बुलाने की मांग कर दी है. इसका मतलब साफ है कि हाराकिरी के बने हालात में असंतुष्ट गांधी परिवार की आथरिटी को ही चुनौती देने का मन बना रहे हैं. सिब्बल ने तो यहां तक कह दिया है कि कांग्रेस में कोई अध्यक्ष नहीं है फिर तमाम फैसले कौन कर रहा है. इससे साफ जाहिर है कि इस समूह के नेता राहुल गांधी के खिलाफ खुल कर बोलने और उनके नेतृत्व को चुनौती देने की तैयारी कर चुके हैं. अब तो यह साफ ही हो गया है कि कैप्टन अमरेंदर सिंह ने आगे की राजनीति के लिए भारतीय जनता पार्टी की राह चुन ही ली है. बावजूद इसके मनीष तिवारी जैसे नेताओं के बोल भी बता रहे हैं कि वे कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व के खिलाफ तल्ख हैं. दरअसल मनीष तिवारी जैसे अनेक नेता ``रिविल्ड कांग्रेस`` की राहुल योजना से खतरा महसूस कर रहे हैं. मनीष तिवार अमरेंदर खेमे के ही नेता हैं. छत्तीसगढ़ हो या राजस्थान दोनों ही राज्यों में कांग्रेस अंदरखाने में सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा है. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, जो कि राहुल गांधी के करीब हैं, की राह में जिस तरह बाधाएं खड़ी की जा रही हैं और उन्हें घेरने का प्रयास किया जा रहा है, वह वास्तव में राहुल गांधी की आथरिटी को ही चुनौती देने जैसा है. 1857 के पहले जिस तरह बहादुर शाह जफर के मुगल दरबार को घेर कर कमजोर कर दिया गया था, कुछ उसी तरह के हालात इस समय कांग्रेस आलाकमान के सामने भी हैं. कांग्रेस का इतिहास रहा है कि जब कभी उसका केंद्रीय नेतृत्व कमजोर हुआ है, पार्टी में बिखराव के लक्षण प्रभावी हुए हैं. ज्यादा पुरानी बात नहीं हुयी है जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और कांगेस के कई नेता टूट कर अलग हो गए. सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद तो कांग्रेस के अनेक नेताओं ने अपनी अपनी पार्टी बना ली. सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस से निकल कर बनी 12 पार्टियों का फिर से पुनर्मिलन हुआ. बाहर केवल शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे दिग्गज रह गए, जो अपने अपने राज्यों की बड़ी राजनैतिक ताकत हैं. अमरेंदर सिंह ने जिस तरह आनन फानन में अजित डोवाल तक से मुलकात कर ली है और इस मुलाकात के बाद राजनीतिक गलियारों में हलचल मच गयी है. इस मुलाकत से संकेत मिल रहे हैं कि कैप्टन के इरादे केवल कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने तक सीमित नहीं हैं. इस समय यह समझना मुश्किल जान पड़ता है कि कौन कांग्रेस के साथ है और कौन कौन कांग्रेस में रह कर ही उसे नुकसान पहुंचाने का इरादा दिखा रहा है. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इन हालतों में त्वरित निर्णय लेने की क्षमता दिखाने की जरूरत है लेकिन वे दुविधाग्रस्त है. कांग्रेस के बड़े नेताओं की आदत बन गयी है कि वे विवाद को गहराने देते हैं और समय रहते हस्तक्षेप नहीं करते हैं. यही कारण है कि कांग्रेस की दो राज्य सरकारें भी अस्थिरता की ओर बढ़ रही है. किसी भी रिविल्ड योजना के लिए यह नुकसानदायक हालात ही हैं.राहुल गांधी को भी यह प्रदर्शित करना होगा कि वे आरएसएस के खतरों और मोदी सरकार की निरंकुशता से लड़ने के लिए अपने संगठन को बेहतर तरीके से संचालित करने की क्षमता रखते हैं और पार्टी पर नियंत्रण भी. लेकिन 2019  के चुनावों के बाद कांग्रेस का अध्यक्ष पद तो राहुल ने छोड़ दिया लेकिन मनोनुकूल पार्टी बनाने के इरादे को लागू करने का तरीका नहीं बदला. कन्हैया या जिग्नेश की तरह अनेक युवा नेता पार्टी में आ चुके हैं लेकिन वे भी तभी कारगर होंगे जब पार्टी लोकतांत्रिक तरीके से एक मजबूती दिखा सकेगी. दूर बैठ तमाशा देखने की आदत अंतत: कांग्रेस के लिए नुकसानदायक ही साबित होने जा रही है. [wpse_comments_template]

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